SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्र २३७ या स्वभाव पाँच प्रकारके होते हैं— औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । जो गुण कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होता है उसे औदयिक कहते हैं। जो गुण कम उपशम- अनुदयसे होता है उसे औपशमिक कहते हैं। जो गुण कर्मोंके क्षय-विनाशसे प्रकट होता है उसे क्षायिक कहते हैं । जो गुण कर्मोंके क्षय और उपशमसे होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं और जो गुण कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावसे ही होता है उसे पारिणामिक कहते हैं । चूँकि जीव इन गुणवाला होता है इसलिए आत्मा को भी गुणनामसे कहा जाता है और उसके स्थान गुणस्थान कहे जाते हैं। वे चौदह हैं मिध्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यगमिध्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोग केवली और अयोग केवली । चूँकि ये गुणस्थान आत्माके गुणोंके विकासको लेकर माने गये हैं इसलिए एकदृष्टिसे ये आध्यात्मिक उत्थान और पतनके चार्ट जैसे हैं । इन्हें हम आत्माकी भूमिकाएँ भी कह सकते हैं। पहले कहे गये आठ कर्मों में से सबसे प्रबल मोहनीयकर्म है । यह कर्म ही आत्माकी समस्त शक्तियोंको विकृत करके न तो उसे सच्चे मार्गका - आत्मस्वरूपका भान होने देता है और न उस मार्ग पर चलने देता है। किन्तु ज्यों हो आत्माके ऊपरसे मोहका पर्दा हटने लगता है त्यों ही उसके गुण विकसित होने लगते हैं । अतः इन गुणस्थानोंकी रचनामें मोहके चढ़ाव और उतारका ही ज्यादा हाथ है । इनका स्वरूप संक्षेपमें क्रमशः इस प्रकार है १. मिथ्यादृष्टि — मोहनीय कर्मके एक भेद मिध्यात्वके उदयसे जो जीव अपने हिताहितका विचार नहीं कर सकते, अथवा विचार कर सकनेपर भी ठीक विचार नहीं कर सकते
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy