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________________ २११ चारित्र णार्थी अपना कल्याण नहीं कर सकता। मुमुक्षुजनोंके लिये सर्वस्व त्याग ही पथ्य है।' इस प्रकार सब कुछ पुत्रको सौंपकर वह गार्ह स्थिक उत्तरदायित्वसे मुक्त हो जाता है । किन्तु मुक्त होनेपर भी वह सहसा घर नहीं छोड़ता, और उदासीन होकर कुछ काल तक घरमें ही रहता है। लड़का यदि किसी कार्यमें उससे सलाह माँगता है तो उचित सम्मति दे देता है। १० अनुमतिविरत-पहलेको नौ प्रतिमाओंमें अभ्यस्त हुआ श्रावक जब देख लेता है कि अब लड़का विना मेरी सलाहके भी सब काम सम्हाल सकता है तो लेन देन, खेती, वनिज और विवाह आदि लौकिक कार्योंमें अनुमति देना बन्द कर देता है, तब वह अनुमतिविरत कहा जाता है । अब वह घरमें न रहकर मन्दिर वगैरहमें रहने लगता है और अपना समय स्वाध्यायमें बिताता है । यथा मध्याह्नकालकी सामायिक करनेके बाद आमत्रण मिलनेपर अपने या दूसरोंके घर भोजन कर आता है । भोजनमें वह अपनो कोई रुचि नहीं रखता । अपने व्रत नियमके अनुसार जो मिलता है खा लेता है और यही विचारता है कि शरीरकी स्थितिके लिये भोजनकी आवश्यकता है, और शरीर को बनाये रखना धर्मसेवनके लिये आवश्यक है। कुछ दिन इसी तरह बिताकर जब वह देख लेता है कि अब मैं घर छोड़ सकता हूँ तो अपने गुरुजनों, बन्धुवों और पुत्र वगैरहसे पूछकर घर छोड़ देता है। ११ उद्दिष्टविरत-यह अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक अपने उद्देश्यसे बनाये गये आहारको प्रहण नहीं करता, इसलिये इसे उद्दिष्टविरत कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं। पहला भेदवाला उत्कृष्ट श्रावक सफेद लंगोटी लगाता है और एक सफेद चादर मात्र अपने पास रखता है, तथा कैंची या छुरेसे अपने केशोंको बनवाता है। और जब किसी स्थानपर बैठता है या लेटता है तो अत्यन्त
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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