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________________ १४ चारित्र २०९ हुई हैं वह प्रतिष्ठित है और जिसमें फाँकें अलग-अलग पड़ गई हैं या शिरायें और धारियाँ स्पष्ट उभर आई हैं उसे अप्रतिठित कहते हैं । ६. दिवामैथुनविरत – पहलेकी पाँच प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब दिनमें मन, वचन और कायसे स्त्रीमात्रके सेवन करनेका त्याग कर देता है तब वह दिवामैथुन विरत कहाता है । पहले पाँचवीं प्रतिमामें इन्द्रिय मदकारक वस्तुओं के खान-पानका त्याग करके इन्द्रियोंको संयत करनेकी चेला की गई हैं । और छठी प्रतिमामें दिनमें कामभोगका त्याग कराकर मनुष्यकी कामभोगकी लालसाको रात्रिके ही लिये सीमित कर दिया गया है । कहा जा सकता है कि दिनमें मैथुन दो बहुत हो कम लोग करते हैं, अतः इसका त्याग कराने में क्या विशेषता हैं ? किन्तु मैथुनका मतलब केवल कायिक भोगसे ही नहीं है, परन्तु उस तरह की बातें करना और मनमें उस तरह के विचारोंका होना भी मैथुनमें सम्मिलित है। तथा दिनमें मनुष्य बहुतसे स्त्री पुरुषोंके दृष्टिसंपर्क में आता है जिन्हें देखकर उसकी कामवासना जाग्रत होनेकी संभावना रहती है । अतः दिनमें इस तरह की प्रवृत्तियों से बचाकर मनुष्यको पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर ले जाना ही इसका लक्ष्य है । ७. ब्रह्मचारी—ऊपर कहे गये संयमके अभ्याससे अपने मनको वश में करके जो मन, वचन और कायसे कभी किसी स्त्रीका सेवन नहीं करता उसे ब्रह्मचारी कहते हैं। पहले छठे दर्जे में दिनमें मैथुनका त्याग कराया है, सातवें दजमें रात्रिमें भी सदाके लिये मैथुनका त्याग करके ब्रह्मचारी बन जाता है । ब्रह्मचर्यके लाभ बतलाना सूर्यको दीपक दिखाना है। आत्मिक शक्तिको केन्द्रित करनेके लिये ब्रह्मचर्य एक अपूर्व वस्तु है । किन्तु होना चाहिये वह ऐच्छिक । बिना इच्छाके जबरदस्ती ब्रह्मचर्य पालनेसे न शारीरिक लाभ होता है और न मानसिक, क्योंकि ब्रह्मचर्य का मतलब केवल शारीरिक कामभोगसे निवृत्ति ही नहीं
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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