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________________ धर्म ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत कामवासना एक रोग है और उसका प्रतिकार भोग नहीं है । भोगसे तो यह रोग और भी अधिक बढ़ता है । किन्तु जिनके चित्तमें यह बात नहीं जमती, या जमनेपर भी जो अपनी कामवासनाको रोकनेमें असमर्थ हैं उन्हें चाहिये कि वे अपनी विवाहिता पत्नीमें ही सन्तोष रक्खें । इसका नाम ब्रह्मचर्याणुत्रत हैं । ब्रह्मचर्याणुव्रती अपनी पत्नीके सिवा जितनी भी स्त्रियाँ हैं, चाहे वे विवाहिता हों, अविवाहिता हों अथवा वेश्या हों, उनसे रमण नहीं करता है और न दूसरोंसे ही ऐसा कराता हैं। ऐसा न करनेका कारण इज्जत आबरूका सवाल नहीं है, किन्तु इस कामको वह अन्तःकरणसे पाप समझता है । जो केवल अपनी मान प्रतिष्ठाके भय से ऐसे कार्योंसे बचता है, वह ऐसे कार्योंको बुरा नहीं समझता और इसलिये जहाँ उसे अपनी मान प्रतिष्ठा जानेका भय नहीं रहता, वहाँ वह ऐसे अनाचार कर बैठता है। और कर बैठनेपर कभी-कभी धोखेमें मानप्रतिष्ठा भी गवाँ देता है । किन्तु जो ऐसे कार्योंको पाप समझता है वह सदा उनसे बचा रहता हैं । इसलिये पाप समझकर ही उनसे बचे रहने में हित है । परस्त्रीगमन और वेश्यागमनकी बुराइयाँ नब कोई जानते हैं, मगर फिर भी मनुष्य अपनी वासनापर काबू न रख सकनेके कारण अनाचार कर बैठते हैं । अनेक युवक छोटे लड़कोंके साथ कुत्सित काम कर बैठते हैं और अपने तथा दूसरोंके जीवनको धूलमें मिला देते हैं। कुछ हस्तमैथुनके द्वारा अपनी कामवासनाको तृप्त करते हैं । ये काम तो परखीगमन और वेश्यागमनसे भी अधिक निन्दनीय हैं। आजकलकी शिक्षाका लक्ष इस तरहके अनाचारोंको रोकनेकी ओर कतई नहीं रहा है । शिक्षार्थी अपना जीवन कैसे बिताता हैं कोई शिक्षक या प्रबन्धक इधर ध्यान नहीं देता । सब जगह शिक्षाको भी खानापूर्ति की जाने लगी है। जो एसे अनाचारोंमें पड़ जाते हैं वे अपने और दूसरोंके आत्मा और शरीर दोनोंका ही घात करते १९४
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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