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________________ १८८ जैनधर्म अपना हानि-लाभ गिनेंगे। इस तरह से अहिंसामूलक व्यवहार स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही दृष्टिसे लाभदायक हैं । यदि जमींदार और मिलमालिक अपने आश्रित किसानों और मजदूरोंके साथ ऐसा ही प्रेममय व्यवहार करते आते तो आज उन दोनों में जो खींचातानी चलती रहती है वह उतना कटुरूप धारण न करनी और न जमींदारी और कल कारखानोंपर सरकारी नियंकी बात ही पैदा होती । अस्तु । रात्रिभोजन आर जलगालन I अहिंसावती श्रावकको रानमें भोजन नहीं करना चाहिये और पानी भी कपड़े से छानकर काममें लेना चाहिये | रानमें भोजन करनेके दुष्परिणाम प्रायः समाचारपत्रों में प्रकट होते रहते हैं । कहीं चायकी केटली में छिपकलीके चुर जानेके कारण चाय पीनेवाले मनुष्योंका मरण सुनने में आता है. कभी किसी दावन में पकते हुए बरतन में साँपके बंध जानेके कारण मनुष्योंका मरण सुनन में आता है । प्रतिवर्ष इस तरह की दो चार घटनाएँ घटती रहती है. मगर फिर भी मनुष्योंकी आँखें नहीं खुलती । भोजन हमेशा दिनके प्रकाश में ही देख भालकर करना चाहिये । रात्रि में तेजसे तेज प्रकाशका प्रबन्ध होनेपर भी एक तो उतना स्पष्ट दिखलाई नहीं देना, जितना दिन में दिखलाई देता है । दूसरे. सूर्य के प्रकाशमें जो जीव जन्तु इधर उधर जा छिपते हैं. रात्रि होते ही वे सब अपने अपने खाद्यकी खोज में निकल पड़ते हैं, कृत्रिम प्रकाश उन्हें रोक नहीं सकता, बल्कि अधिक तेज प्रकाशसे पतंगे वगैरह और भी अधिक आते हैं। खानेवाला भोजन करता जाता है और पतंगे वगैरह टप टप गिरते हैं । रात्रिको हलवाईकी दूकानपर जाकर देखें | नीचे भट्टीपर दूधकी कड़ाही चढ़ी होती है और ऊपर बिजली के बल्वपर पतंगे मंडराते रहते हैं और कड़ाही में गिर गिरकर पीनेवालोंके लिये मलाईका लच्छा बनानेका काम करते रहते हैं ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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