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________________ चारित्र १८५ जूँ वगैरह | उन्हें त्रस कहते हैं। और जो जीव पृथ्वीरूप हैं, जलरूप हैं, अग्निरूप हैं, वायुरूप हैं और वनस्पतिरूप हैं उन्हें स्थावर कहते हैं । गृहस्थ स्थावर जीवोंकी हिंमासे तो बच ही नहीं सकता, उसे अपने जीवन निर्वाहके लिये इन सब वस्तुओंकी आवश्यकता होती है । हो, सावधानी उनके प्रति भी रखता है, जैसा आगे बतलाया गया है । अब रह जाते हैं स | सोंकी हिंसा चार प्रकारकी होती है संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । इनमें से वह केवल संकल्पी हिंसाका त्याग करता है । इनका विशेष विवेचन पहले 'अहिंसा' के प्रकरणमें कर दिया गया है। शास्त्रकारांने लिखा है " इत्यनारम्भजां जह्याद् हिंसामारम्भजां प्रति । व्यर्थस्थावरसिंहावद्यतनामावहेद् गृही ॥ १० ॥ " मागार धर्मा० । अर्थात- 'आरम्भके सिवा अन्य कार्यमं होनेवाली हिंसाको गृहस्थ छोड़ दे और खेती आदि आरम्भ होनेवाली हिंसाको व्यर्थ की स्थावर हिंसाकी तरह यथाशक्ति बचानेका प्रयत्न करें ।' आरम्भ में होनेवाली हिंसाके सिवा दिलबहलाव के लिये, स्वादके लिये, चमड़के सामान जूते वगैरह बनानेके लिये और धर्मके लिये जो पशुहत्या की जाती है वह सब छोड़ देना चाहिये । और जीवित पशुओंको मारकर उनके ताजे और मुलायम चमड़ेसे जो चीजें बनाई जाती हैं उनका भी व्यवहार नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे उनके वधको प्रोत्साहन मिलता है । चूँकि जो गृहस्थ जीवन बिताना है उसका निर्वाह बिना किसी उद्योग धन्धेके चल नहीं सकता, इसलिये आरम्भी हिंसा तो एक गृहस्थ के लिये अपरिहार्य है, किन्तु गृहस्थको ऐसा उद्योग करना चाहिये जिसमें जीवधान कमसे कम हो, और उतना ही उद्योग करना चाहिये जिनने से उसका निर्वाह बखूबी हो सकता हो, क्योंकि जो गृहस्थ थोड़े आरम्भ और थोड़ी परिग्रह में सन्तुष्ट रहता है वहीं अहिंसा अणुत्रतको पाल
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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