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________________ चारित्र १८३ भारत गुलाम नहीं हो सका। वे मरना जानते थे और समयपर मारना भी जानते थे। किन्तु रणमे विमुख होकर भागना नहीं जानते थे। प्राणोंके मोहसे कर्नव्यच्युत होना तो सबसे बड़ी हिंसा है। एक बार एक लेखकने गीतामं प्रतिपादित अर्जुन व्यामोहके सम्बन्धमें लिखा था-"अर्जुनका आदर्श अनार्योंका-बौद्ध और जैन का मार्ग है। वह आर्यांका-हिन्दू जातिका आदर्श कदापि नहीं है। हिन्दू-जानि ऐसे झूट अहिंसाके आदर्शको नहीं माननी।" हम नहीं समझते लेखकने इस आदर्शको जनोंका आदर्श कैसे समझ लिया ? गीतासे स्पष्ट है कि अर्जुन हिसाके भयसे युद्धसे विरत नहीं हो रहा था किन्तु अपने बन्धु बान्धवों और कुलका विनाश उसे कर्तव्यच्युत कर रहा था। अर्जुनके हृदयमें अहिंसाकी ज्योति नहीं झलकी थी, जिसके प्रकाशमें मनुष्य प्राणिमात्रको अपना बन्धु और संसारको अपना कुटुम्ब मानता है, उसके हृदयमें तो कुटुम्ब महिने अपना साम्राज्य जमा लिया था । अतः वह अहिंसाका आदर्श नहीं था । अहिंसा कर्तव्यच्युत नहीं करनी, किन्तु कर्तव्यका बोध कराकर अकनव्यसे बचाती है और कर्नव्यपर दृढ़ करती है। अतः अहिंसा न अव्यवहार्य है और न कायरता और निर्बलताकी जननी है। उसकी मर्यादा, व्याख्या और शक्तिसे जो परिचित है वह ऐसा कहनेका साहस नहीं कर सकना । ५. श्रावकका चारित्र जैन संघके चार अंग बनलाय हैं-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका । श्रावकसे मतलब है पुरुप गृहस्थ और श्राविकासे मतलब है स्त्री गृहस्थ । जैन गृहस्थ श्रावक कहे जाते हैं। जिसका अपभ्रंश 'सरावगी' शब्द कहीं-कहीं अब भी प्रचलित है । श्रावक और श्राविकाका जैन संघमें बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके बिना मुनि आश्रम चल ही नहीं सकता और उन्होंमें
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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