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________________ १८० जैनधर्म मता है । इससे देवी प्रसन्न नहीं होती । धर्माराधन के स्थानोंको वृचड़खाना बनाना शोभा नहीं देता । अतः सबसे पहिले गृहस्थको धर्मके लिये, पेटके लिये और दिलबहलाव के लिये किसी भी प्राणीका बात नहीं करना चाहिये । कुछ लोग कहते हैं कि जब जैनधर्मके अनुसार जल तथा वनस्पति वगैरह भी जीवोंका कलेवर ही है, तत्र निरामिष भांजियोंको वनस्पति वगैरह भी नहीं खाना चाहिये । परन्तु जो सप्तधातु युक्त कलेवर होना है उसकी हो माँस संज्ञा है। वनस्पति में सप्तधातु नहीं पाई जाती। अतः उसकी माँस संज्ञा नहीं है । इसी तरह कुछ लोग स्वयं मरे हुए प्राणीके माँस के खानेमें दोप नहीं बतलाते । यह सत्य है कि जिस प्राणीका वह माँस है, उसे मारा नहीं गया । किन्तु एक तो मांसमें तत्काल अनेक सूक्ष्म जीवोंको उत्पत्ति हो जाती है, दूसरे माँस भक्षणसे जो बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं, उनसे मनुष्य कभी भी नहीं बच सकता । कहा भी हैं— माँसास्वादनलुब्धस्य देहिनो देहिनं प्रति । हंतुं प्रवर्तते बुद्धिः शकुन्य इव दुधियः ॥२७॥ —योगशा० । अर्थात्–'जिसको माँस खानेका चसका पड़ जाता है, उस प्राणीकी बुद्धि दुष्ट पक्षियोंके समान दूसरे प्राणियों को मारनेमें लगती है ।' 1 आज माँस भक्षणका बहुत प्रचार हैं उसका ही यह फल है कि अपने स्वार्थ के पीछे मनुष्य मनुष्यका दुश्मन वना हुआ हैं एकको दूसरेका वध करते हुए जरा भी संकोच नहीं होता । अतः इसस बचना चाहिये । इस तरह गृहस्थको त्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसाका त्याग जरूर करना चाहिये | अब रह जाती है, उद्योगी आरम्भी और विरोधी हिंसा । एक नीची श्रेणीके गृहस्थके लिये उनका त्याग करना शक्य नहीं है, क्योंकि उसे अपने कुटुम्बियों के भरण
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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