SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० जैनधर्म दाताको किसी व्यक्तिके बुरे कर्मका फल ऐसा देना चाहिये जो उसकी सजाके रूपमें हो, न कि उसके द्वारा दूसरोंको सजा दिलवानेके रूपमें हो। किन्तु ईश्वर घातकसे दूसरेका घात कराता है; क्योंकि उसे उस घातकके द्वारा दूसरेको सजा दिलानी है । किन्तु घातकको, जिस बुद्धिके कारण वह परका घात करता है उस बुद्धिको बिगाड़नेवाले कमौंका क्या फल मिला ? इस फलके द्वारा तो दूसरेको सजा भोगनी पड़ी। किन्तु यदि ईश्वरको फलदाता न मानकर जीवके कर्मोंमें ही स्वतः फलदानकी शक्ति मान ली जाय तो उक्त समस्या आसानीसे हल हो जाती है; क्योंकि मनुष्यके बुरे कर्म उसकी बुद्धिपर इस प्रकारका संस्कार डाल देते हैं, जिससे वह क्रोधमें आकर दूसरों का घात कर डालता है और इस तरह उसके बुरे कर्म उसे बुरे मार्गकी ओर ही तबतक लिये चले जाते हैं जब तक वह उधरसे सावधान नहीं होना । अतः ईश्वर को कर्म-फलदाता माननेमें इस तरह के अन्य भी अनेक विवाद खड़े होते हैं। जिनमें से एक इस प्रकार हैं किसी कर्मका फल हमें तुरन्त मिल जाता है, किसीका कुछ माह बाद मिलता है, किसीका कुछ वर्ष बाद मिलता हैं और किसीका जन्मान्तरमें मिलता है। इसका क्या कारण है ? कर्मफलके भोगमें समयकी विषमता क्यों देखी जाती है ? ईश्वरवादियोंकी ओर से इसका ईश्वरेच्छाके सिवाय कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं मिलता । किन्तु कर्ममें ही फलदानको शक्ति माननेवाला कर्मवादी जैनसिद्धान्त उक्त प्रश्नोंका बुद्धिगम्य समाधान करता है जो कि आगे बतलाया गया है । अतः ईश्वरको फलदाता मानना उचित नहीं जँचता । कर्मके भेद पहले बतलाया है कि जैनदर्शनमें कर्मसे मतलब जीवकी प्रत्येक क्रियाके साथ जीवकी ओर आकृष्ट होनेवाले कर्मपर
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy