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________________ ૪૪ जैनधर्म जीव अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक । अतः उन दोनोंका बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि मूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध हो सकता है । किन्तु अमूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध कैसे हो सकता है ? ऐसी आशंका की जा सकती है, उसका समाधान इस प्रकार है- अन्य दर्शनोंकी तरह जैनदर्शन भी जीव और कर्म सम्बन्धको अनादि मानता है। किसी समय जीव सर्वथा शुद्ध था, बादको उसके साथ कर्मोंका सम्बन्ध हुआ, ऐसी मान्यता नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें अनेक विवाद उठ खड़े होते हैं। सबसे पहला विवाद तो यह है कि सर्वथा शुद्ध जीवके कर्मबन्ध हुआ तो कैसे हुआ ? और यदि सर्वथा शुद्ध जीव भी कर्मों के बन्धनमें पड़ सकता है तो उससे छुटकारा पानेका प्रयत्न करना ही व्यर्थ हो जाता है । अतः जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है । जैसा कि पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थमें आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है 'जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिमु गदि ॥ १२८ ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहि दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२६ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि | इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिघणो सणिघणो वा ॥ १३० ॥ | ' अर्थ - जो जीव संसारमें स्थित है अर्थात् जन्म और मरणके चक्रमें पड़ा हुआ है, उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते हैं । उन परिणामोंसे नये कर्म बँधते हैं । कर्मोंसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेनेसे शरीर मिलता है । शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंको 'ग्रहण करता है । विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विषयोंसे द्वेष करता है । इस प्रकार संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोंसे कर्मबन्ध और कर्मबन्धसे राग-द्वेष रूप
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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