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________________ सिद्धान्त १३७ जाने दें। इसमें किसी प्रकारका अश्लील, वीभत्स, जुगुप्सित, विश्री, अरोचक हमें लगा है, ऐसा किसी भी मनुष्यको अनुभव नहीं । इसका कारण क्या ? कारण यही कि नग्नता प्रकृतिक स्थिति के साथ स्वभावशुदा है। मनुष्यने विकृत ध्यान करके अपने मनके विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्तेकी ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभावसुन्दर नग्नता उसे सहन नहीं होती । दोष नग्नताका नहीं पर अपने कृत्रिम जीवनका है। बीमार मनुष्यके समक्ष परिपक्व फल, पौष्टिक मेवा और सात्विक आहार भी स्वतंत्रतापूर्वक रख नहीं सकते। यह दोष उन खाद्य पदार्थोंका नहीं पर मनुष्यके मानसिक रोगका है । नग्नता छिपाने में नग्नताकी लज्जा नहीं, पर इसके मूलमें विकारी पुरुपके प्रति दयाभाव है, रक्षणवृत्ति है । पर जैसे बालकके सामने नराधम भी सौम्य और निर्मल बन जाता है. वैसे ही पुण्यपुरुषोंके सामने, वीतराग विभूतियोंके समक्ष भी वे शान्त हो जाते हैं । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ भी मनुष्य पराजित होकर विशुद्ध होता है। मूर्तिकार सोचते तो माधवीलताकी एक शाखा जंघाके ऊपरसे ले जाकर कमरपर्यन्त ले जाते । इस प्रकार नग्नता छिपानी अशक्य नहीं थी । पर फिर तो उन्हें सारी फ़िलोसोफीकी हत्या करनी पड़ती । बालक आपके समक्ष नग्न खड़े रहते हैं । उस समय वे कात्यायनी व्रत करती हुई मूर्तियोंके समान अपने हाथों द्वारा अपनी नग्नता नहीं छिपाते । उनकी लज्जाहीनता उनकी नग्नताको पवित्र करती है । उनके लिये दूसरा आवरण किस कामका है?” "जब मैं ( काका सा० ) कारकलके पास गोमटेश्वरकी मूर्ति देखने गया, उस समय हम स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध अनेक थे । हममें से किसीको भी इस मूर्तिका दर्शन करते समय संकोच जैसा कुछ भी मालूम नहीं हुआ । अस्वाभाविक प्रतीत होनेका प्रश्न ही नहीं था । मैंने अनेक नग्न मूर्तियाँ देखी हैं
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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