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________________ सिद्धान्त १३१ करता है । जैसे कागजोंके ऊपर अंकित अक्षरोंके पढ़नेसे ईश्व रीय ज्ञानका बोध होता है वैसे ही मूर्तिके द्वारा ईश्वरीय स्वरूपका बोध होता है। यद्यपि अक्षर भी मूर्ति है और मूर्ति भी मूर्ति है, किन्तु अक्षरोंसे तो पढ़ा लिखा व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है परन्तु मूर्तिको देखकर बेपढ़ा लिखा मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है । यदि कोई नासमझ मूर्तिसे गलत शिक्षा ले लेता है इसलिये मूर्ति बेकार है तो कोई-कोई नासमझ धर्मग्रन्थों को भी गलत समझ लेते हैं, किन्तु इसीसे उन्हें व्यर्थ तो नहीं माना जा सकता । जैसे कागजोंपर अंकित देश विदेशके नकशोंपर अंगुलि रखकर शिक्षक विद्यार्थियोंको बतलाता है कि यह रूस है, यह हिन्दुस्थान है, यह अमेरिका है आदि । समझदार विद्यार्थी जानते हैं कि जहाँ शिक्षकने अंगुलि रखी है वही रूस, अमेरिका नहीं है किन्तु उस नकशेके द्वारा उसे हमें उनका बोध कराया जा रहा है। वैसे हो हम भी मूर्तिको असली परमेश्वर नहीं मानते, किन्तु उसके द्वारा हमें उस परमेश्वरके स्वरूपको समझने में मदद मिलती है। अतः मूर्ति व्यर्थ नहीं है । यहाँ हम एक जैन स्तुतिका भाव अंकित करते हैं, जिससे मूर्तिपूजाके उद्देश्यपर तथा पूजककी भावनापर प्रकाश पड़ता है 'सब पदार्थोंके ज्ञाता होते हुए भी अपने आत्मिक आनन्दमें मग्न वे जिनेन्द्र सदा जयवन्त हों जो चारों घातिया कर्मोंसे रहित हो चुके हैं ।' 'हे वीतराग विज्ञानके भण्डार ! तुम्हारी जय हो । हे मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेवाले सूर्य ! तुम्हारी जय हो ! हे अनन्तानन्तज्ञानके धारक तथा अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यसे सुशोभित ! तुम्हारी जय हो । भव्य जीवोंको स्वानुभव करानेमें कारण परमशान्त मुद्राके धारक ! तुम्हारी जय हो । हे देव ! भव्यजीवोंके भाग्योदयसे आपका दिन्य
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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