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________________ जैनधर्म सर्वथा मुक्त नहीं होते और सिद्ध उससे सर्वथा मुक्त होते हैं तथापि सिद्धोंको अर्हन्तोंके बाद नमस्कार किया गया है। यथा णमो सिद्धाणं-सिद्धोंको नमस्कार हो। इस प्रकार जैनदृष्टिसे अर्हन्तपद और सिद्धपदको प्राप्त हुए जीव ही ईश्वर कहे जाते हैं। प्रत्येक जीवमें इस प्रकारके ईश्वर होनेकी शक्ति है । परन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनके कारण वह शक्ति ढकी हुई है। जो जीव इस कर्मबन्धनको तोड़ डालता है उसके हो ईश्वर होनेकी शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं और वह ईश्वर बन जाता है। इस तरह ईश्वर किसी एक पुरुषविशेषका नाम नहीं है। किन्तु अनादिकालसे जो अनन्त जीव अर्हन्त और सिद्धपदको प्राप्त हो गये हैं और आगे होंगे उन्हींका नाम ईश्वर है। जैनधर्मके ये ईश्वर संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते । सृष्टिके संचालनमें उनका हाथ है,न वे किसीका भला बुरा करते हैं। न वे किसीके स्तुतिवादसे कभी प्रसन्न होते हैं और न किसीके निन्दावादसे अप्रसन्न । न उनके पास कोई ऐसी सांसारिक वस्तु है जिसे हम ऐश्वर्य या वैभवके नामसे पुकार सकें, न वे किसीको उसके अपराधोंका दण्ड देते हैं। जैनसिद्धान्तके अनुसार सृष्टि स्वयंसिद्ध है । जीव अपने अपने कर्मोके अनुसार स्वयं हो सुख दुःख पाते हैं। ऐसी अवस्था में मुक्तात्माओं और अर्हन्तोंको इन सब झंझटोंमें पड़नेको आवश्यकता ही नहीं है; क्योंकि वे कृतकृत्य हो चुके हैं, उन्हें अब कुछ करना बाकी नहीं रहा है। सारांश यह है कि जैनधर्म में ईश्वररूपमें माने हुए अर्हन्तों और मुक्तात्माओंका उस ईश्वरत्वसे कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे अन्य लोग संसारके कर्ता हर्ता ईश्वरमें कल्पना किया करते हैं । उस ईश्वरत्वकी तो जैनदर्शनके विविध ग्रन्थों में बड़े जोरोंके साथ आलोचना की गई है। और उस दृष्टिसे जैनधर्मको अनी
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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