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________________ सिद्धान्त १०९ समान एक प्रकारका भ्रम है। जो परमेश्वरको ही अनादि अनन्त मानते हैं उनका कहना है कि यह सृष्टि भ्रममात्र तो नहीं है। किन्तु इसे परमेश्वरने ही नास्तिसे अस्तिरूप किया है। पहले तो एक परमेश्वरके सिवाय कुछ था ही नहीं। पीछे उसने किसी समयमें अवस्तुसे ही ये सब वस्तुएँ बना दी हैं। जब वह चाहेगा तब फिर वह इन्हें नास्तिरूप कर देगा और तब सिवाय उस एक परमेश्वरके अन्य कुछ भी न रहेगा। दूसरे विभागवाले कहते हैं अवस्तुसे कोई वस्तु बन नहीं सकती, वस्तुसे ही वस्तु बना करती है। संसारमें जीव और अजीव दो प्रकारकी वस्तुएँ दिखाई देती हैं, वे किसीके द्वारा बनाई नहीं गई है। जिस प्रकार परमेश्वर सदासे है उसी प्रकार जीव और अजीवरूप वस्तुएँ भी सदासे हैं, सदा रहेंगी। परन्तु इन वस्तुओंकी अनेक अवस्थाओंका बनाना और बिगाड़ना उस परमेश्वरके ही हाथमें है। तीसरे विभागवालोंका कहना है कि जीव और अजीव ये दोनों ही प्रकारकी वस्तुएँ अनादिसे हैं और अनन्तकाल तक रहेंगी। इनकी अवस्थाओंको बदलनेवाला और इस विश्वका नियामक कोई तीसरा नहीं है। इन्हों वस्तुओंके परस्परके सम्बन्धसे इन्होंके गुणों और स्वभावोंके द्वारा सब परिवर्तन स्वयमेव होता है। इस प्रकार इन तीनों मतोंमें यद्यपि बहुत अन्तर है तो भी एक वातमें ये तीनों ही सहमत हैं। तीनोंने ही किसी न किसी वस्तुको अनादि अवश्य माना है। पहला ब्रह्म या ईश्वरको अनादि मानता है । वही इस विश्वको बनाता और बिगाड़ता है। दूसरा परमेश्वरके ही समान जीव और अजीवको भी अनादि मानता है। तीसरा जीव और अजीवको ही अनादि मानता है। अतः इन तीनोंमें यह विवाद तो उठ ही नहीं सकता कि बिना बनाये सदासे भी कोई वस्तु हो सकती है या नहीं। और जब यह मान लिया गया कि बिना बनाये सदासे भी कोई या कुछ वस्तुएँ हो सकती हैं तो यह बात भी सभी स्वीकार
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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