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________________ १०६ जैनधर्म किन्तु वह भी वस्तुओंका बलात् परिणमन नहीं कराता है और न एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप परिणमन कराता है, किन्तु स्वयं परिणमन करते हुए द्रव्योंका सहायकमात्र हो जाता है। काल दो प्रकारका है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल । लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर जुदे-जुदे कालाणुकालके अणु स्थित हैं, उन कालाणुको निश्चयकाल कहते हैं। अर्थात् कालद्रव्य नामकी वस्तु वे कालाणु ही हैं। उन कालाणुओंके निमित्तसे हो संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उन्हींके निमित्तसे प्रत्येक वस्तुका अस्तित्व कायम है। आकाशके एक प्रदेशमें स्थित पुद्गलका एक परमाणु मन्दगतिसे जितनी देर में उस प्रदेशसे लगे हुए दूसरे प्रदेशपर पहुँचता है उसे समय कहते हैं। यह समय कालद्रव्यकी पर्याय है। समयोंके समूहको ही आवली, उछ्वास, प्राण, स्तोक, घटिका, दिन रात आदि कहा जाता है। यह सब व्यवहारकाल हैं । यह व्यवहारकाल सौर मण्डलकी गति और घड़ी वगैरहके द्वारा जाना जाता है तथा इसके द्वारा ही निश्चयकाल अर्थात् कालद्रव्यके अस्तित्वका अनुमान किया जाता है ; क्योंकि जैसे किसी बच्चे में शेरका व्यवहार करनेसे कि 'यह बच्चा शेर है' शेर नामके पशुके होनेका निश्चय किया जाता है, वैसे ही सूर्य आदिकी गतिमें जो कालका व्यवहार किया जाता है वह औपचारिक है, अतः काल नामका कोई स्वतंत्र द्रव्य होना आवश्यक है जिसका उपचार लौकिक व्यवहारमें किया जाता है। कालद्रव्यको अन्य दार्शनिकोंने भी माना है, किन्तु उन्होंने व्यवहारकालको ही कालद्रव्य मान लिया है । कालद्रव्य नामकी अणुरूप वस्तुको केवल जैनोंने ही स्वीकार किया है। यह कालद्रव्य भी आकाशकी तरह ही अमूर्तिक है। केवल इतना अन्तर है कि आकाश एक अखण्ड है, किन्तु कालद्रव्य अनेक हैं, जैसा कि लिखा है
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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