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________________ जैनधर्म अर्थात्–'जब सुवर्णके प्यालेको तोड़कर उसकी माला बनाई जाती है तब जिसको प्यालेकी जरूरत है, उसको शोक होता है, जिसे मालाकी आवश्यकता है उसे हर्ष होता है और जिसे सुवर्णकी आवश्यकता है उसे न हर्ष होता है और न शोक । अतः वस्तु त्रयात्मक है । यदि उत्पाद, स्थिति और व्यय न होते तो तीन व्यक्तियोंके तीन प्रकारके भाव न होते, क्योंकि प्यालेके नाशके बिना प्यालेकी आवश्यकतावालेको शोक नहीं हो सकता, मालाके उत्पादके बिना मालाकी आवश्यकतावालेको हर्ष नहीं हो सकता और सुवर्णकी स्थिरताके बिना सुवर्ण इच्छुकको प्यालेके विनाश और मालाके उत्पादमें माध्यस्थ्य नहीं रह सकता । अतः वस्तु सामान्यसे नित्य है ।' ( और विशेष अर्थात पर्यायरूपसे अनित्य है ) । निष्कर्ष यह है कि जैन दर्शनमें द्रव्य ही एक तत्त्व हैं, जो ६ प्रकारका है और वह प्रति समय उत्पाद व्यय और धौव्य स्वरूप है । अतएव वह द्रव्यदृष्टिसे नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य है । अब प्रत्येक द्रव्यका परिचय कराया जाता है । ४. जीवद्रव्य जैनाचार्य श्रीकुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें जीवका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है— 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमरिणद्दिट्ठसंठाणं || २-८०|' 'जिसमें न कोई रस है न कोई रूप है और न किसी प्रकार - की गन्ध है, अतएव जो अव्यक्त है, शब्दरूप भी नहीं है, किसी M भौतिक चिह्नसे भी जिसे नहीं जाना जा सकता और न जिसका कोई निर्दिष्ट आकार ही है, उस चैतन्यगुण विशिष्ट द्रव्यको जीव कहते हैं।' इसका यह आशय है कि जिसमें चेतनागुण है, वह जीव
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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