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________________ सिद्धान्त द्रव्यका प्रवाह भी सतत् जारी रहता है । अर्थात् द्रव्य अनादि और अनन्त है। 'दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तरांजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्ह ॥१०॥ अर्थ-'भगवान जिनेन्द्रदेव द्रव्यका लक्षण सत् कहते हैं। अथवा जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त है वह द्रव्य है। अथवा जो गुण और पर्यायका आश्रय है वह द्रव्य है।' द्रव्यके इन तीनों लक्षणों से एकके कहनेसे शेष दो लक्षण स्वतः ही कहे जाते हैं, क्योंकि जो सत है वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तथा गुण और पर्यायसे संयुक्त है, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाला है वह सत है और गुण पर्यायका आश्रय भी है, तथा जो गुण पर्यायवाला है वह मत है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त भी है। ___ चूंकि सत् नित्यानित्यात्मक है अतः सनके कहनेसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यपना प्रकट होता है तथा ध्रुवत्वसे गुणोंके साथ और उत्पादव्ययसे विनाशशील पर्यायोंके साथ एकात्मकता प्रकट होती है। इसी तरह वस्तुको उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य म्वरूप बतलानेसे उसकी नित्यानित्यात्मकता और गुणपर्यायविशिष्टता प्रकट होती है । तथा वस्तुको गुणपर्यायात्मक बतलानेसे गुणोंसे ध्रौव्यका और पर्यायसे उत्पाद विनाशका सूचन होता है और उससे नित्यानित्यात्मक सन् है यह प्रतीत होता है। अतः तीनों लक्षण प्रकारान्तरसे द्रव्यका विश्लेषण करते हैं और बतलाते हैं कि "उप्पत्तीव विणासो दम्बस्स य त्थि अत्थि सम्भावो । विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया ।। ११ ॥' अर्थ-"द्रव्यका न तो उत्पाद होता है और न विनाश, वह तो सत्स्वरूप है। किन्तु उसीकी पर्यायें उसके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको करती हैं।"
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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