SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ५७ 'स्यात्' एक प्रहरी : 'स्यात्' शब्द एक ऐसा प्रहरी है, जो शब्दकी मर्यादाको संतुलित रखता है । वह संदेह या संभावनाको सूचित नहीं करता किन्तु एक निश्चित स्थितिको बताता है कि वस्तु अमुक दृष्टिसे अमुक धर्मवाली है ही । उसमें अन्य धर्म उस समय गौण है । यद्यपि हमेशा 'स्यात्' शब्द के प्रयोगका नियम नहीं है, किन्तु वह समस्त वाक्योंमें अन्तर्निहित रहता है । कोई भी वाक्य अपने प्रतिपाद्य अंशका अवधारण करके भी वस्तुगत शेष अंशोंको गौण तो कर सकता है पर उनका निराकरण करके वस्तुको सर्वथा ऐकान्तिक नहीं बना सकता, क्योंकि वस्तु स्वरूपसे अनेकान्त—–अनेक धर्मवाली है । 'स्यात्' का अर्थ 'शायद' नहीं : 'स्यात्' शब्द हिन्दी भाषामें भ्रान्तिवश शायदका पर्यायवाची समझा जाने लगा है । प्राकृत और पाली में 'स्यात्' का 'सिया' रूप होता है । यह वस्तुके सुनिश्चित भेदोंके साथ सदा प्रयुक्त होता रहा है । जैसे कि 'मज्झिमनिकाय ' के 'महारा हुलोवादसुत्त' में आपो धातुका वर्णन करते हुए लिखा है कि " कतमा च राहुल आपोधातु ? ', आपोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा” अर्थात् आनोधातु (जल) कितने प्रकार को है ? आपोधातु स्यात् आभ्यन्तर है और स्यात् बाह्य । यहाँ आभ्यन्तर धातुके साथ 'सिया' शब्दका प्रयोग आपोधातु के आभ्यन्तर भेदके सिवा द्वितीय बाह्य भेदकी सूचनाके लिए है, और बाह्य के साथ 'सिया' शब्दका प्रयोग बाह्यके सिवा आभ्यन्तर भेदकी सूचना देता है । अर्थात् 'आपो' धातु न तो बाह्यरूप ही है और न आभ्यान्तररूप ही । इस उभयरूपताकी सूचना 'सिया' - ' स्यात् ' शब्द देता है। यहाँ न तो 'स्यात्' शब्दका 'शायद' हो अर्थ है, और न 'संभव' और न 'कदाचित्' ही । क्योंकि 'आपो' धातु शायद आभ्यन्तर और शायद बाह्य नहीं है और न संभवत: आभ्यन्तर
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy