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________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ओंका विस्तार तब तक बराबर होता जायगा, जब तक कि उनका कोई वस्तुस्पर्शी समाधान न निकल आवे। अनेकान्तदृष्टि वस्तुके उसी स्वरूपका दर्शन कराती है; जहाँ विचार समाप्त हो जाते है। जब तक वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं होती, तभी तक विवाद चलते है । अग्नि ठंडी है या गरम, इस विवादकी समाप्ति अग्निको हाथसे छू लेनेपर जैसे हो जाती है, उसी तरह एक-एक दृष्टिकोणसे चलनेवाले विवाद अनेकान्तात्मक वस्तुदर्शनके बाद अपने आप समाप्त हो जाते है। स्वतःसिद्ध न्यायाधीश हम अनेकान्तदर्शनको न्यायाधीशके पदपर अनायास ही बैठा सकते है । प्रत्येक पक्षके वकीलों द्वारा अपने पक्षके समर्थनके लिए संकलित दलीलोंकी फाइलकी तरह न्यायाधीशका फैसला भले ही आकारमें बड़ा न हो, पर उसमे वस्तुस्पर्श, व्यावहारिकता, सूक्ष्मता और निष्पक्षपातिता अवश्य होती है । उसी तरह एकान्तके समर्थनमे प्रयुक्त दलीलोंके भंडारभूत एकान्तवादी दर्शनोंको तरह जैनदर्शनमें विकल्प या कल्पनाओंका चरम विकास न हो, पर उसकी वस्तुस्पर्शिता, व्यावहारिकता, समतावृत्ति एवं अहिंसाधारितामें तो संदेह किया ही नहीं जा सकता। यही कारण है कि जैनाचार्योने वस्तुस्थितिके आधारसे प्रत्येक दर्शनके दृष्टिकोणके समन्वयकी पवित्र चेष्टा की है और हर दर्शनके साथ न्याय किया है । यह वृत्ति अहिंसाहृदयीके सुसंस्कृत मस्तिष्ककी उपज है। यह अहिंसास्वरूपा भनेकान्तदृष्टि ही जैनदर्शनके भव्य प्रासादका मध्य स्तम्भ है । इसीसे जैनदर्शनकी प्राणप्रतिष्ठा है। भारतीय दर्शन सचमुच इस अतुल सत्यको पाये बिना अपूर्ण रहता। जैनदर्शनने इस अनेकान्तदृष्टिके आधारसे बनी हुई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्रके कोषागारमे अपनी ठोस और पर्याप्त पूँजी जमा की है। युगप्रधान आ० समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि दार्शनिकोंने इसी दृष्टिके पुण्य प्रकाशमे सत्-असत्, नित्य-अनित्य,
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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