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________________ विषय प्रवेश या अहिंसाके विकाससे ही कोई महान् हो सकता है; न कि जगत्में भयंकर विषमताका सर्जन करनेवाले हिंसा और संघर्षके मूल कारण परिग्रहके संग्रहसे। युग-दर्शन ? यद्यपि यह कहा जा सकता है कि अहिसा या दयाकी साधनाके लिए तत्त्वज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? मनुष्य किसी भी विचारका क्यों न हो, परस्पर सद्व्यवहार, सद्भावना और मैत्री उसे समाज-व्यवस्थाके लिए करनी चाहिए । परन्तु जरा गहराईसे विचार करनेपर यह अनिवार्य एवं आवश्यक हो जाता है कि हम विश्व और विश्वान्तर्गत प्राणियोंके स्वरूप और उनकी अधिकार-स्थितिका तात्त्विक दर्शन करें। बिना इस तत्त्वदर्शनके हमारी मैत्री कामचलाऊ और केवल तत्कालीन स्वार्थको साधनेवाली साबित हो सकती है। ___ लोग यह सस्ता तर्क करते है कि-'कोई ईश्वरको मानो या न मानो, इससे क्या बनता बिगड़ता है ? हमें परस्पर प्रेमसे रहना चाहिये ।' लेकिन भाई, जब एक वर्ग उस ईश्वरके नामसे यह प्रचार करता हो किईश्वरने मुखसे ब्राह्मणको, बाहुसे क्षत्रियको, उदरसे वैश्यको और पैरोंसे शूद्रको उत्पन्न किया है और उन्हे भिन्न-भिन्न अधिकार और संरक्षण देकर इस जगत्में भेजा है। दूसरी ओर ईश्वरके नामपर गोरी जातियाँ यह फतवा दे रही हों कि-ईश्वरने उन्हें शासक होनेके लिए तथा अन्य काली-पीली जातियोंको सभ्य बनानेके लिए पृथ्वीपर भेजा है। अतः गोरी जातिको शासन करनेका जन्मसिद्ध अधिकार है, और काली-पीली जातियोंको उनका गुलाम रहना चाहिये। इस प्रकारको वर्गस्वार्थकी घोषणाएँ जब ईश्वरवादके आवरणमें प्रचारित की जाती हों, १. "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासोद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तद्वस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ।।"-ऋग्वेद १०।९०।१२ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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