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________________ ५७४ जैनदर्शन बऔर उनका यथोचित लिनियोग आवश्यक हो गया, तब यह उन सभी आत्माओंको ही समान भूमिका और समान अधिकारकी चादरपर बैठकर सोचना चाहिये कि 'जगतके उपलब्ध साधनोंका कैसे विनियोग हो ?' जिससे प्रत्येक आत्माका अधिकार सुरक्षित रहे और ऐसी समाजका निर्माण संभव हो सके, जिसमें सवको समान अवसर और सबकी समानरूपसे प्रारम्भिक आवश्यकताओंकी पति हो सके। यह व्यवस्था ईश्वरनिर्मित होकर या जन्मजात वर्गसंरक्षणके आधारसे कभी नहीं जम सकती, किन्तु उन सभी समाजके घटक अंगोंको जाति, वर्ण, रंग और देश आदिके भेदके बिना निरुपाधि समानस्थितिके आधारसे ही बन सकती है। समाजव्यवस्था ऊपरसे लदनी नहीं चाहिये, किन्तु उसका विकास सहयोगपद्धतिसे सामाजिक भावनाको भूमिपर होना चाहिये, तभी सर्वोदयी समाज-रचना हो सकती है । जनदर्शनने व्यक्तिस्वातन्त्र्यको मलरूपमें मानकर सहयोगमलक समाजरचनाका दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया है ! इसमें जब प्रत्येक व्यक्ति परिग्रहके संग्रहको अनधिकारवृत्ति मानकर हो अनिवार्य या अत्यावश्यक साधनोंके संग्रहमें प्रवृत्ति करेगा, सो भी समाजके घटक अन्य व्यक्तियोंको समानाधिकारी समझकर उनकी भी सुविधाका विचार करके ही; तभी सर्वोदयी समाजका स्वस्थ निर्माण संभव हो सकेगा। निहित स्वार्थवाले व्यक्तियोंने जाति, वंश और रंग आदिके नामपर जो अधिकारोंका संरक्षण ले रखा है तथा जिन व्यवस्थाओंने वर्गविशेषको संरक्षण दिये हैं, वे मूलतः अनधिकार चेष्टाएँ हैं। उन्हें मानवहित और नवसमाजरचनाके लिये स्वयं समाप्त होना ही चाहिये और समान अवसरवाली परम्पराका सर्वाभ्युदयको दृष्टिसे विकास होना चाहिये। ___इस तरह अनेकान्तदृष्टिसे विचारसहिष्णुता और परसन्मानकी वृत्ति जग जाने पर मन दूसरेके स्वार्थको अपना स्वार्थ माननेको ओर प्रवृत्त होकर समझोतेकी ओर सदा झुकने लगता है। जब उसके स्वाधिकारके साथ-ही-साथ स्वकर्त्तव्यका भी भाव उदित होता है; तव वह दूसरेके आन्तरिक मामलोंमें जबरदस्ती टाँग नहीं अड़ाता । इस तरह विश्वशान्तिके लिये अपेक्षित विचारसहिष्णुता, समानाधिकारको स्वीकृति और आन्तरिक
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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