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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५७१ मंकर दूषण तो तब होता, जब जिस दृष्टिकोणसे स्थिति मानी जाती है उसी दृष्टिकोणसे उत्पाद और व्यय भी माने जाते। दोनोंकी अपेक्षाएँ जुदी-जुदी है। वस्तुमें दो धर्मोको तो बात ही क्या है, अनन्त धर्मोका संकर हो रहा है; क्योंकि किमी भी धर्मका जदा-जदा प्रदेश नहीं है। एकही अखंड वस्तु सभी धर्मोका अविभक्त आमेडित आधार है। मबकी एक ही दृष्टिसे युगपत् प्राप्ति होती, तो मंकर दूपण होता, पर यहाँ अपेक्षाभेद, दृष्टिभेद और विवक्षाभेद मुनिश्चित है । व्यतिकर परस्पर विषयगमनसे होता है। यानी जिम तरह वस्तु द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य है तो उसका पर्यायकी दृष्टिमे भी नित्य मान लेना या पर्यायकी दृष्टिसे अनित्य है तो द्रव्यकी दष्टिमे भी अनित्य मानना । परन्तु जब अपेक्षाएँ निश्चित है, धर्मोमे भेद है, तब इम प्रकारके परम्पर विषयगमनका प्रश्न ही नहीं है। अखंड धर्मीकी दष्टिसे तो संकर और व्यतिकर दूषण नहीं, भूषण ही है। इसीलिये वैयधिकरण्यकी बात भी नही है: क्योकि मभी धर्म एक ही आधारमे प्रतीत होते है। वे एक आधारमे होनेसे ही एक नहीं हो सकते; क्योकि एक ही आकाशप्रदेदाम्प आधारमे जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्योंकी सत्ता पाई जाती है, पर सब एक नहीं है। धर्ममे अन्य धर्म नहीं माने जाते, अतः अनवस्थाका प्रमंग भी व्यर्थ है। वस्तु त्रयात्मक है न कि उत्पादत्रयात्मक या व्ययत्रयात्मक या स्थितित्रयात्मक । यदि धर्मोमे धर्म लगते तो अनवस्था होती। इस तरह धर्मोको एकरूप माननेसे एकान्तत्वका प्रमंग नहीं उठना चाहिये; क्योकि वस्तु अनेकान्तरूप है, और मम्यगेकान्तका अनेकान्तसे कोई विरोध नहीं है। जिस समय उत्पादको उत्पादरूपसे अस्ति और व्ययरूपसे नास्ति कहेगे उस समय उत्पाद धर्म न रहकर धर्मी बन जायगा। धर्म-धर्मिभाव सापेक्ष है। जो अपने आधारभूत धर्मीकी अपेक्षा धर्म होता है वही अपने आधेयभूत धर्मोकी अपेक्षा धर्मी बन जाता है। जब वस्तु उपर्युक्त रूपसे लोकव्यवहार तथा प्रमाणसे निर्बाध प्रतीतिका विषय हो रही है तब उसे अनवधारणात्मक, अव्यवस्थित या अप्रतीत कहना भी साहसकी ही बात है। और जब प्रतीत है तब अभाव तो हो ही नहीं सकता।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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