SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 596
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन तादात्म्य होता है, अतः पर्यायसे अभिन्न होनेके कारण द्रव्य स्वयं अनित्य होता हुआ भी अपनी अनाद्यनन्त अविच्छिन्न धाराकी अपेक्षा ध्रुव या नित्य होता है। अतः भेदाभेदात्मक या उभयात्मक तत्त्वको जो प्रकिया, स्वरूप और समझने-समझानेको पद्धति आर्हत दर्शनमें व्यवस्थित रूपसे पाई जाती है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही है । श्रीविज्ञानभिक्षु और स्याद्वाद: ब्रह्मसूत्रके विज्ञानामृत भाष्य दिगम्बरोंके स्याद्वादको अव्यवस्थित बताते हुए लिखा है कि "प्रकारभेदके बिना दो विरुद्ध धर्म एकसाथ नहीं रह सकते । यदि प्रकारभेद माना जाता है, तो विज्ञानभिक्षुजी कहते हैं कि हमारा ही मत हो गया और उसमें सब व्यवस्था बन जाती है, अतः आप अव्यवस्थित तत्त्व क्यों मानते हैं ?" किन्तु स्याद्वाद सिद्धान्तमें अपेक्षाभेदसे प्रकारभेदका अस्वीकार कहाँ है ? स्याद्वादका प्रत्येक भंग अपने निश्चित दृष्टिकोणसे उस धर्मका अवधारण करके भी वस्तुके अन्य धर्मोकी उपेक्षा नहीं होने देता । एक निर्विकार ब्रह्ममें परमार्थतः प्रकारभेद कैसे बन सकते हैं ? अनेकान्तवाद तो वस्तुमें स्वभावसिद्ध अनन्तधर्म मानता है। उसमें अव्यवस्थाका लेशमात्र नहीं हैं। उन धर्मोका विभिन्न दृष्टिकोणोंसे मात्र वर्णन होता है, स्वरूप तो उनका स्वतःसिद्ध है। प्रकारभेदसे कहीं एक साथ दो धर्मोके मान लेनेसे ही व्यवस्थाका ठेका नहीं लिया जा जा सकता । अनेकान्ततत्त्वकी भूमिका ही समस्त विरोधोंका अविरोधी आधार हो सकती है। १. “अपरे वेदबाह्या दिगम्बरा एकस्मिन्नेव पदार्थे भावाभावौ मन्यन्ते... सर्वे वस्त्वव्यवस्थितमेव स्यादस्ति स्यान्नास्ति'अत्रेदमुच्यते; न; एकस्मिन् यथोक्तभावाभावादिरूपत्वमपि। कुता ? असम्भवात् । प्रकारभेदं बिना विरुद्धयोरेकदा सहावस्थानसंस्थानासम्भवात् । प्रकारभेदाभ्युपगमे वास्मन्मतप्रवेशेन सर्वैव ब्यवस्थास्ति कथमब्यवस्थितं जगदभ्युगम्यते भवद्भिरित्यर्थः ।"-विज्ञानामृतभा० २।२।३३ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy