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________________ सामान्यावलोकन २१ अन्यथानुपपत्ति-रूपसे एक लक्षण स्थापित किया और 'वाद' का सांगोपांग विवेचन किया। ३. प्रमाणव्यवस्था युग जिनभद्र और अकलंक: ___ आ० जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ( ई० ७वीं सदी ) अनेकान्त और नय आदिका विवेचन करते हैं तथा प्रत्येक प्रमेयमें उसे लगानेको पद्धति भी बताते हैं । इनने लौकिक इन्द्रियप्रत्यक्षको जो अभी तक परोक्ष कहा जाता था और इसके कारण व्यवहारमें असमंजसता आती थी, संव्यवहारप्रत्यक्ष संज्ञा दी' अर्थात् आगमिक परिभाषाके अनुसार यद्यपि इन्द्रिजन्य ज्ञान परोक्ष ही है पर लोकव्यवहारके निर्वाहार्थ उसे संव्यवहारप्रत्यक्ष कहा जाता है । यह संव्यवहार शब्द विज्ञानवादी बौद्धोंके यहाँ प्रसिद्ध रहा है । भट्ट अकलंकदेव ( ई० ७ वी ) सचमुच जैन प्रमाणशास्त्रके सजीव प्रतिष्ठापक हैं । इनने अपने लघीयस्त्रय ( का० ३, १० ) में प्रथमतः प्रमाणके दो भेद करके फिर प्रत्यक्षके स्पष्ट रूपसे मुख्यप्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद किये है। परोक्षप्रमाणके भेदोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमको अविशद ज्ञान होनेके कारण स्थान दिया । इस तरह प्रमाणशास्त्रको व्यवस्थित रूपरेखा यहाँसे प्रारम्भ होती है। अनुयोगद्वार, स्थानांग और भगवतीसूत्रमें प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चार प्रमाणोंका निर्देश मिलता है । यह परम्परा न्यायसूत्रकी है । तत्त्वार्थभाष्यमें इस परम्पराको 'नयवादान्तरेण' रूपसे निर्देश करके भी इसको स्वपरम्परामें स्थान नहीं दिया है और न उत्तरकालीन किसी जैन ग्रंथमें इनका कुछ विवरण या निर्देश ही है। समस्त उत्तरकालीन जैनदार्शनिकोंने अकलंकद्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धतिको ही पब्लवित और पुष्पित करके जैन न्यायोद्यानको सुवासित किया है। १. विशेषा० भाष्य गा० ९५ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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