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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५५३ यह एक सामान्य मान्यता रूढ़ है कि एक वस्तु अनेक कैसे हो सकती है ? पर जब वस्तुका स्वरूप ही असंख्य विरोधोंका आकर है तब उससे इनकार कैसे किया जा सकता है ? एक हो आत्मा हर्ष, विषाद, सुख, दु:ख, ज्ञान, अज्ञान आदि अनेक पर्यायोंको धारण करनेवाला प्रतीत होता है । एक कालमें वस्तु अपने स्वरूपसे है यानी उसमें अपना स्वरूप पाया जाता है, परका स्वरूप नहीं । पररूपका नास्तित्व यानी उसका भेद तो प्रकृत वस्तुमें मानना ही चाहिये, अन्यथा स्व और परका विभाग कैसे होगा ? उस नास्तित्वका निरूपण पर पदार्थ की दृष्टिसे होता है, क्योंकि परका ही तो नास्तित्व है । जगत अन्योऽन्याभावरूप है । घट घटेतर यावत् पदार्थोंसे भिन्न है । 'यह घट अन्य घटोंसे भिन्न है' इस भेदका नियामक परका नास्तित्व ही हैं । 'पररूप उसका नहीं है, इसीलिये तो उसका नास्तित्व माना जाता है । यद्यपि पररूप वहाँ नहीं है, पर उसको आरोपित करके उसका नास्तित्व सिद्ध किया जाता है कि 'यदि घड़ा पटादिरूप होता, तो पटादिरूपसे उसकी उपलब्धि होनी चाहिये थी ।' पर नहीं होती, अतः सिद्ध होता है कि घड़ा पटादिरूप नहीं है । यही उसका एकत्व या कैवल्य है जो वह स्वभिन्न परपदार्थरूप नहीं है । जिस समय परनास्तित्वकी विवक्षा होती है; उस समय अभाव ही वस्तुरूप पर छा जाता है, अतः वही वही दिखाई देता है, उस समय अस्तित्वादि धर्म गौण हो जाते हैं और जिस समय अस्तित्व मुख्य होता है उस समय वस्तु केवल सद्रूप ही दिखती है, उस समय नास्तित्व आदि गौण हो जाते हैं । यही अन्य भंगों में समझना चाहिए । तत्त्वोपप्लवकार किसी भी तत्त्वकी स्थापना नहीं करना चाहते, अतः उनकी यह शैली है कि अनेक विकल्प- जालसे वस्तुस्वरूपको मात्र विघटित कर देना । अन्तमें वे कहते हैं कि इस तरह उपप्लुत तत्त्वों में ही समस्त जगतके व्यवहार अविचारितरमणीय रूपसे चलते रहते हैं । परन्तु अनेकान्त तत्त्वमें जितने भी विकल्प उठाए जाते हैं, उनका समा
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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