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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५५१ तिका सर्वथा उच्छेद मान लिया है । इसी भयसे बुद्धने स्वयं निर्वाणको अव्याकृत कहा था, उसके स्वरूपके सम्बन्धमें भाव या अभाव किसी रूप में उनने कोई उत्तर नहीं दिया था । बुद्ध के इस मौनने ही उनके तत्त्वज्ञान में पीछे अनेक विरोधी विचारोंके उदयका अवसर उपस्थित किया है । विशप्तिमात्रतासिद्धि और अनेकान्तवाद विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' (परि० २ खं० २ ) टीकामें निर्ग्रन्थादिके मतके रूपसे भेदाभेदवादका पूर्वपक्ष करके दूषण दिया है कि "दो धर्म एक धर्मीमें असिद्ध है ।" किन्तु जब प्रतीतिके बलसे उभयात्मकता सिद्ध होती है, तब मात्र 'असिद्ध' कह देनेसे उनका निषेध सकता। इस सम्बन्ध में पहिले लिखा जा चुका है । बातका है कि एक परम्पराने जो दूसरके मतके खंडनके लिये 'नारा' लगाया, उस परम्परा के अन्य विचारक भी आँख मूंदकर उसी 'नारे' को बुलन्द किये जाते हैं ! वे एक बार भी रुककर सोचनेका प्रयत्न ही नहीं करते । स्याद्वाद और अनेकान्तके सम्बन्धमें अब तक यही होता आया है । नहीं किया जा आश्चर्य तो इस इस तरह स्याद्वाद और उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक परिणामवादमें जितने भी दूषण बौद्धदर्शनके ग्रन्थोंमें देखे जाते है वे तत्त्वका विपर्यास करके ही थोपे गये है, और आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकोणकी दुहाई देनेवाले मान्य दर्शनलेखक इस सम्बन्धमें उसी पुरानी रूढिसे चिपके हुए है ! यह महान् आश्चर्य है ! १. 'सद्भूता धर्माः सत्तादिधर्मैः समाना भिन्नाश्चापि, यथा निर्ग्रन्थादीनाम् । तन्मतं न समञ्जसम्। कस्मात् ? न भिन्नाभिन्नमतेऽपि पूर्ववत् भिन्नाभिन्नयोर्दोषभावात् । उभयोरेकस्मिन् असिद्धत्वात् । "भिन्नाभिन्नकल्पना न सद्भूतं न्यायासिद्धं सत्याभासं गृहीतम् ।' - विज्ञप्ति० परि० २ ख० २ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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