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________________ ५४६ जैनदर्शन नहीं, वह प्रकृत चित्तक्षणोंका परस्पर ऐसा तादात्म्य सिद्ध कर रही है, जिसको हम सहज ही धौव्य या द्रव्यकी जगह बैठा सकते हैं । बीज और अंकुरका कार्यकारणभाव भी सर्वथा निरन्वय नहीं है, किन्तु जो अणु पहले बीजके आकार में थे, उन्होंमेंके कुछ अणु अन्य अणुओंका साहचर्य पाकर अंकुराकारको धारणकर लेते हैं । यहाँ भी ध्रौव्य या द्रव्य विच्छिन्न नहीं होता, केवल अवस्था बदल जाती है । प्रतीत्यसमुत्पादमें भी प्रतीत्य और समुत्पाद इन दो क्रियाओंका एक कर्त्ता माने बिना गति नहीं है । 'केवल क्रियाए ही हैं और कारक नहीं है', यह निराश्रय बात प्रतीतिका विषय नहीं होती । अतः तत्त्वको उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक तथा व्यवहारके लिये सामान्यविशेषात्मक स्वीकार करना ही चाहिये । कर्णकगोमि और स्याद्वाद : - सर्वप्रथम ये दिगम्बरोंके 'अन्यापोह — इतरेतराभाव न माननेपर एक वस्तु सर्वात्मक हो जायगी' इस सिद्धान्तका खंडन करते हुए लिखते है कि 'अभावके द्वारा भावभेद नहीं किया जा सकता । यदि पदार्थ अपने कारणोंसे अभिन्न उत्पन्न हुए हैं, तो अभाव उनमें भेद नहीं डाल सकता और यदि भिन्न उत्पन्न हुए हैं, तो अन्योन्याभावकी कल्पना ही व्यर्थ है ।' वे ऊर्ध्वता सामान्य और पर्यायविशेष अर्थात् द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तुमें दूषण देते हुए लिखते हैं कि "सामान्य और विशेषमें अभेद माननेपर या तो अत्यन्त अभेद रहेगा या अत्यन्त भेद । अनन्तधर्मात्मक धर्मी प्रतीत नहीं होता, अतः लक्षणभेदसे भी भेद नहीं हो सकता । दही और ऊंट १. 'योsपि दिगम्बरो मन्यते — सर्वात्मकमेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । तस्माद् मेद एवान्यथा न स्यादन्योन्याभावो भावानां यदि न भवेदिति सोऽप्यनेन निरस्तः, अभावेद भावभेदस्य कतुमशक्यत्वात् । नाप्यभिन्नानां हेतुतो निप्पन्नानामन्योन्याभावः संभवति, अभिन्नाश्चेन्निष्पन्नः; कथमन्योन्याभावः संभवति ? भिन्नाश्चेन्निष्पन्नाः कथमन्योन्याभावकल्पनेत्युक्तम् ।' प्र० वा० स्ववृ० टी० पृ० १०९ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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