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________________ ५३८ जैनदर्शन " यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा ।। " यह कर्म और कर्मफलको एक अधिकरणमें सिद्ध करनेवाला प्रमाण स्पष्ट कह रहा है कि जिस सन्तानमें कर्मवासना - यानी कर्मके संस्कार पड़ते है, उसीमें फलका अनुसन्धान होता है । जैसे कि जिस कपासके बीज में लाक्षारसका सिंचन किया गया है उसीसे उत्पन्न होनेवाली कपास लाल रंग की होती है । यह सब क्या है ? सन्तान एक सन्तन्यमान तत्त्व है जो पूर्व और उत्तरको जोड़ता है और वे पूर्व तथा उत्तर परिवर्तित होते है । इसीको तो जैन ध्रौव्य शब्दसे कहते हैं, जिसके कारण द्रव्य अनादि - अनन्त परिवर्तमान रहता है । द्रव्य एक आम्रेडित अखंड मौलिक है । उसका अपने धर्मोसे कथञ्चित् भेदाभेद या कथञ्चित्तादात्म्य है । अभेद इसलिये कि द्रव्यसे उन धर्मोको पृथक् नहीं किया जा सकता, उनका विवेचन - पृथक्करण अशक्य है । भेद इसलिये कि द्रव्य और पर्यायमें संज्ञा, संख्या, स्वलक्षण और प्रयोजन आदिकी विविधता पाई जाती है । A अर्चटको इसपर भी आपत्ति है । वे लिखते है कि " द्रव्य और पर्याय में संख्यादिके भेदसे भेद मानना उचित नहीं है । भेद और अभेद पक्षमें जो दोष होते हैं, वे दोनों पक्ष मानने पर अवश्य होंगे । भिन्नाभिन्नात्मक एक वस्तुकी संभावना नहीं है, अत: यह वाद दुष्टकल्पित है ।" आदि । १. 'द्रव्यपययरूपत्वात् द्वैरूप्यं वस्तुनः किल । तयोरेकात्मकत्वेऽपि भेदः सज्ञादिभेदतः ॥ १॥" भेदाभेदोक्तदोषाश्च तयोरिष्टौ कथं न वा । प्रत्येकं ये प्रसज्यन्ते द्वयोर्भावे कथन्न ते ॥ ६२॥ न चैवं गम्यते तेन वादोऽयं जाल्मकल्पितः ॥४५॥' 6000 - हेतुबि० टी० १० १०४ - १०७ ॥
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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