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________________ ५३६ जैनदर्शन नहीं होता । यह नहीं कहा जा सकता कि वह कबसे प्रारम्भ हुई और न यह बताया जा सकता है कि वह कब तक चलेगी। प्रथम क्षण नष्ट होकर अपना सारा उत्तराधिकार द्वितीय क्षणको सौंप देता है और वह तीसरे क्षणको । इस तरह यह क्षणसन्तति अनन्तकाल तक चालू रहती है । यह भी सिद्ध है कि विवक्षित क्षण अपने सजातीय क्षणमें ही उपादान होता है, कभी भी उपादानसांकर्य नहीं होता । आखिर इस अनन्तकाल तक चलनेवाली उपादानकी असंकरताका नियामक क्या है ? क्यों नहीं वह विच्छिन्न होता और क्यों नहीं कोई विजातीयक्षणमें उपादान बनता ? धोव्य इसी असंकरता और अविच्छिन्नताका नाम है । इसके कारण कोई भी मौलिक तत्त्व अपनी मौलिकता नहीं खोता । इसका उत्पाद और व्ययके साथ क्या विरोध है ? उत्पाद और व्ययको अपनी लाइन पर चालू रखनेके लिये, और अनन्तकाल तक उसकी लड़ी बनाये रखने के लिये धौव्यका मानना नितान्त आवश्यक है । अन्यथा स्मरण, प्रत्यभिज्ञान लेने-देन, बन्ध-मोक्ष, गुरुशिष्यादि समस्त व्यवहारोंका उच्छेद हो जायगा । आज विज्ञान भी इस मूल सिद्धान्त पर ही स्थिर है कि “किसी नये सत्का उत्पाद नहीं होता और मौजूद सत्का सर्वथा उच्छेद नहीं होता, परिवर्तन प्रतिक्षण होता रहता है" इसमें जो तत्त्वकी मौलिक स्थिति है उसीको धौव्य कहते हैं । बौद्ध दर्शन में 'सन्तान' शब्द कुछ इस अर्थ में प्रयुक्त होकर भी वह अपनी सत्यता खो बैठा है, और उसे पंक्ति और सेनाकी तरह मृपा कहनेका पक्ष प्रबल हो गया है । पंक्ति और सेना अनेक स्वतन्त्र सिद्ध मौलिक द्रव्यों में संक्षिप्त व्यवहारके लिये कल्पित बुद्धिगत स्फुरण है, जो उन्हें ही प्रतीत होता है, जिनने संकेत ग्रहण कर लिया है, परन्तु धीव्य या द्रव्यको मौलिकता बुद्धिकल्पित नहीं है, किन्तु क्षणकी तरह ठोस सत्य है, जो उसकी १. " भावस्स णस्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो || १५ || ” , अनादि अनन्त - पंचास्तिकाय ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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