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________________ सामान्यावलाकन १९ यद्यपि कुन्दकुन्दके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार और समयसार ग्रन्थ तर्कगर्भ आगमिक शैलीमें लिखे गये है, फिर भी इनकी भूमिका दार्शनिककी अपेक्षा आध्यात्मिक ही अधिक है । पूज्यपाद : श्वेताम्बर विद्वान् तत्त्वार्थसूत्र के तत्त्वार्थाधिगम भाष्यको स्वोपज्ञ मानते हैं । इसमें भी दर्शनान्तरीय चर्चाएँ नहीं के बराबर हैं । आ० पूज्यपादने तत्त्वार्थ सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि नामकी सारगर्भ टीका लिखी है । इसमें तत्त्वार्थके सभी प्रमेयों का विवेचन है । इनके इष्टोपदेश, समाधितन्त्र आदि ग्रन्थ आध्यात्मिक दृष्टिसे ही लिखे गये है । हाँ, जैनेन्द्रव्याकरणका आदिसूत्र इनने “सिद्धिरनेकान्तात् " ही बनाया है । २. अनेकान्त स्थापनका ल समन्तभद्र और सिद्धसेन : जब बौद्धदर्शनमें नागार्जुन, वसुबंधु, असंग तथा बौद्धन्यायके पिता दिग्नागका युग आया और दर्शनशास्त्रियोंमें इन बौद्धदार्शनिकोंके प्रबल तर्कप्रहारोंसे बेचैनी उत्पन्न हो रही थी, एक तरहसे दर्शनशास्त्र के तार्किक अंश और परपक्ष खंडनका प्रारम्भ हो चुका था, उस समय जैनपरम्परामें युगप्रधान स्वामी समन्तभद्र और न्यायावतारी सिद्धसेनका उदय हुआ । इनके सामने सैद्धान्तिक और आगमिक परिभाषाओं और शब्दोंको दर्शन के चौखटेमें बैठानेका महान् कार्य था । इस युगमें जो धर्मसंस्था प्रतिवा - दियोंके आक्षेपोंका निराकरण कर स्वदर्शनकी प्रभावना नहीं कर सकती थी उसका अस्तित्व ही खतरेमें था । अतः परचक्र से रक्षा करनेके लिये अपना दुर्ग स्वतः संवृत करनेके महत्त्वपूर्ण कार्यका प्रारम्भ अन+दो महान् आचार्योने किया । स्वामी समन्तभद्र प्रसिद्ध स्तुतिकार थे । इनने आप्तकी स्तुति करने के प्रसंगसे आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन और बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र में एकान्तवादों
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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