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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५२१ सप्तभंगी बनाई जा सकती है और ऐसे अनन्त मप्तभंग वस्तुके विराट स्वरूपमे संभव है। यह सब निरूपण वस्तुस्थितिके आधारमे किया जाता है, केवल कल्पनासे नहीं। जैनदर्शनने दर्शनशब्दकी काल्पनिक भूमिमे ऊपर उठकर वस्नुमीमापर खड़े होकर जगन्मे वस्तुस्थितिके आधारसे मवाद, ममीकरण और यथार्थ तत्त्वज्ञानकी अनेकान्त-दृष्टि और स्याद्वाद-भाषा दी। जिनकी उपासनासे विश्व अपने वास्तविक स्वरूपको ममझ निरर्थक वादविवादमे बचकर मवादी बन सकता है। शङ्कराचार्य और स्याद्वाद : वादगयणने ब्रह्ममूत्र मे मामान्यरूपमे 'अनेकान्त' नन्वमे दूषण दिया है कि एकवस्तुमे अनेकधर्म नही हो सकते। श्रीगङ्कराचार्यजी अपने भाष्यमे इसे विवमनममय ( दिगम्बर सिद्धान्त ) लिखकर इसके मप्तभंगो नयमे मूत्रनिर्दिष्ट विरोधके सिवाय मंशय दोष भी देते है। वे लिखते है कि "एक वस्तुमे परम्परविरोधी अनेक धर्म नहीं हो सकते, जैसे कि एक ही वस्तु शीत और उष्ण नही हो सकती। जो मात पदार्थ या पंचास्तिकाय बताये है, उनका वर्णन जिम रूपमे है, वे उमरूपमे भी होगे और अन्यरूपमे भी। यानी एक भी म्पसे उनका निश्चय नही होनेमे मंगयदूषण आता है। प्रमाता, प्रमिति आदिके स्वरूपमे भी इसी तरह निश्चयात्मकता न होनेमे तीर्थकर किसे उपदेश देगे और श्रोता कैसे प्रवृत्ति करेंगे ? पाच अस्तिकायोकी ‘पाँच संख्या' है भी और नही भी, यह तो बडी विचित्र बात है। एक तरफ अवक्तव्य भी कहते है, फिर उसे अवक्तव्य शब्दमे कहते भी जाते हैं।' यह तो स्पष्ट विरोध है कि'स्वर्ग और मोक्ष है भी और नहीं भी, नित्य भी है और अनित्य भी।' १. 'नकस्मिन्नसभवात् ।'-ब्रह्ममू० २।३३। २. शांकरभाष्य -३३ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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