SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१६ जैनदर्शन कम नहीं हो सकता और न उसमें किसी नये 'सत्' की वृद्धि ही हो सकती है, न एक सत् दूसरेमें विलीन ही हो सकता है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता, जब इसके अंगभूत एक भी द्रव्यका लोप हो जाय या सब समाप्त हो जाय । निर्वाण अवस्थामें भी आत्माकी निरास्रव चित्सन्तति अपने शुद्धरूपमें बराबर चालू रहती है, दोपको तरह बुझ नहीं जाती, यानी समूल समाप्त नहीं हो जाती। (२) क्या लोक अशाश्वत है ? हाँ, लोक अशाश्वत है द्रव्योंके प्रतिक्षणभावी परिणमनोंकी दृष्टिसे । प्रत्येक सत् प्रतिक्षण अपने उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यात्मक परिणामी स्वभावके कारण सदृश या विसदृश परिणमन करता रहता है। कोई भी पर्याय दो क्षण नहीं ठहरती । जो हमें अनेक क्षण ठहरनेवाला परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी अनेक सदृश परिणमनोंका अवलोकन मात्र है। इस तरह सतत परिवर्तनशील संयोग-वियोगोंकी दृष्टिसे विचार कीजिए, तो लोक अशाश्वत है, अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है । ( ३ ) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप है ? हाँ, क्रमशः उपर्युक्त दोनों दृष्टियोंसे विचार करने पर लोक शाश्वत भी है ( द्रव्यदृष्टिसे ) और अशाश्वत भी है ( पर्यायदृष्टिसे ), दोनों दृष्टिकोणोंको क्रमशः प्रयुक्त करनेपर और उन दोनोंपर स्थूल दृष्टिसे विचार करने पर जगत उभयरूप भी प्रतिभासित होता है। (४) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनोंरूप नहीं है ? आखिर उसका पूर्ण रूप क्या है ? हाँ, लोकका पूर्ण रूप वचनोंके अगोचर है, अवक्तव्य है। कोई ऐसा शब्द नहीं, जो एकसाथ लोकके शाश्वत और अशाश्वत दोनों स्वरूपोंको तथा उसमें विद्यमान अन्य अनन्त धर्मोको बुगपत् कह सके। अतः शब्दकी असामर्थ्यके कारण जगतका पूर्ण रूप अवक्तव्य है, अनुभय है, वचनातीत है। इस निरूपणमें आप देखेंगे कि वस्तुका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है,
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy