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________________ स्याद्वाद-मीमांसा ५१३ पृ० ४६१ में ) इन शब्दोंमें किया है-“यदि आप पूछे-'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, परलोक नहीं नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी है, परलोक न है और न नहीं है।" . संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके सम्बन्धके ये विचार शत-प्रतिशत अज्ञान या अनिश्चयवादके है । वह स्पष्ट कहता है कि "यदि मैं जानता होऊँ, तो बताऊँ।" वह संशयालु नहीं, घोर अनिश्चयवादी था। इसलिये उसका दर्शन वकील राहुलजीके "मानवको सहजबुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चय कर भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है ।" वह आज्ञानिक था। बुद्ध और संजयः ___म० बुद्धने १. लोक नित्य है, २. अनित्य है, ३. नित्य-अनित्य है, ४. न नित्य न अनित्य है, ५. लोक अन्तवान् है, ६. नहीं है, ७. है नहीं है, ८. न है न नहीं है, ६. मरनेके बाद तथागत होते है, १०. नहीं होते, ११. होते है नहीं होते, १२. न होते है न नहीं होते १३. जीव शरीरसे भिन्न है, १४. जीव शरीरसे भिन्न नहीं है।' ( माध्यमिकवृत्ति पृ० ४४६) इन चौदह वस्तुओंको अव्याकृत कहा है। मज्झिमनिकाय ( २।२३ ) में इनकी संख्या दस है । इनमें आदिके दो प्रश्नोंमे तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिनाया है। इनके अव्याकृत होनेका कारण बुद्धने बताया है कि इनके बारेमे कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्याके लिये उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद, निरोध, शान्ति, परमज्ञान या निर्वाणके लिये आवश्यक है ।' तात्पर्य यह कि बुद्धको दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिये आवश्यक नहीं था। दूसरे शब्दोंमें बुद्ध भी संजयकी तरह इनके बारेमे कुछ कहकर मानवकी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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