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________________ सप्तभंगी ५०५ हैं । इसी गौण-मुख्य विवक्षाका सूचन 'स्यात्' शब्द करता है । वक्ता और श्रोता यदि शब्दशक्ति और वस्तुस्वरूपके विवेचनमें कुशल हैं तो 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका कोई नियम नहीं है। उसके बिना प्रयोगके भी उसका सापेक्ष अनेकान्तद्योतन सिद्ध हो जाता है। जैसे'अहम् अस्मि' इन दो पदोंमें एकका प्रयोग होने पर दूसरेका अर्थ स्वतः गम्यमान हो जाता है, फिर भी स्पष्टताके लिये दोनोंका प्रयोग किया जाता है उसी तरह ‘स्यात्' पदका प्रयोग भी स्पष्टता और अभ्रान्तिके लिये करना उचित है । संसारमें समझदारोंकी अपेक्षा कमसमझ या नासमझोंकी संख्या हो औसत दर्जे अधिक रहती आई है। अतः सर्वत्र 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना ही राजमार्ग है।। परमतकी अपेक्षा भंग-योजना : स्यादस्ति अवक्तव्य आदि तोन भंग परमतकी अपेक्षा इस तरह लगाये जाते है । अद्वैतवादियोंका सन्मात्र तत्त्व अस्ति होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि केवल सामान्यमे वचनोंकी प्रवृत्ति नहीं होती । बौद्धोंका अन्यापोह नास्तिरूप होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि शब्दके द्वारा मात्र अन्यका अपोह करनेसे किसी विधिरूप वस्तुका बोध नहीं हो सकेगा। वैशेषिकके स्वतन्त्र सामान्य और विशेष अस्ति-नास्ति-सामान्य-विशेषरूप होकर भी अवक्तव्य है-शब्दके वाच्य नहीं हो सकते; क्योंकि दोनोंको स्वतन्त्र मानने पर उनमें सामान्य-विशेषभाव नहीं हो सकता। सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेपमें शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती और न उनसे कोई अर्थक्रिया हो हो सकती है। सकलादेश और विकलादेश : लघीयस्त्रयमें सकलादेश और विकलादेशके सम्बन्धमें लिखा है१. लघी० श्लो० ३३॥ २. न्यायविनिश्चय श्लो० ४५४ । ३. अष्टसहस्री पृ० १३९ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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