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________________ सप्तभंगी ४९९ सकते हैं । भ० महावीरने कहा कि वस्तु इतनी विराट् है कि उसमें चार कोटियां तो क्या, इनके मिलान-जुड़ानके बाद अधिक-से-अधिक संभव होनेवाली सात कोटियां भी विद्यमान है। आज लोगोंका प्रश्न चार कोटियोंमें घूमता है, पर कल्पना तो एक-एक धर्ममे अधिक-से-अधिक सात प्रकारको हो सकती है। ये सातों प्रकारके अपुनरुक्त धर्म वस्तुमे विद्यमान है। यहाँ यह बात खास तौरसे ध्यानमे रखनेकी है कि एक-एक धर्मको केन्द्रमें रखकर उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्मके साथ वस्तुके वास्तविकरूप या शब्दको असामर्थ्यजन्य अवक्तव्यताको मिलाकर सात भंगों या सात धर्मोकी कल्पना होती है। ऐसे असंख्य सात-सात भंग प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे वस्तुमे संभव है। इसलिये वस्तुको सप्तधर्मा न कहकर अनन्तधर्मा या अनेकान्तात्मक कहा गया है । जव हम अस्तित्व धर्मका विचार करते है तो अस्तित्वविषयक सात भंग बनते है और जब नित्यत्व धर्मकी विवेचना करते है तो नित्यत्वको केन्द्रमे रखकर सात भंग बन जाते है। इसतरह असंख्य सात-सात भंग वस्तुमे संभव होते है । सात ही भंग क्यों ?: ___ 'भंग सात ही क्यों होते है ?' इस प्रश्नका एक समाधान तो यह है कि तीन वस्तुओंके गणितके नियमके अनुसार अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते है। दूसरा समाधान है कि प्रश्न सात प्रकारके ही होते है । 'प्रश्न सात प्रकारके क्यों होते है ?' इसका उत्तर है कि जिज्ञासा सात प्रकारकी ही होती है। 'जिज्ञासा सात प्रकारको क्यों होती है ?' इसका उत्तर है कि संशय सात प्रकारके ही होते है। 'संशय सात प्रकारके क्यों है ?' इसका जबाब है कि वस्तुके धर्म ही सात प्रकारके है। तात्पर्य यह कि सप्तभंगीन्यायमे मनुष्य स्वभावकी तर्कमूलक प्रवृत्तिको गहरी छानबीन करके वैज्ञानिक आधारसे यह निश्चय किया गया है कि आज जो 'सत्, असत्, उभय और अनुभयको' चार कोटियाँ तत्त्वविचारके
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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