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________________ ४९६ जैनदर्शन मीमांसा के प्रकरण में मिलता है । आकृति नष्ट होने पर भी पदार्थकी सत्ता बनी रहती है। एक ही क्षणमै वस्तुके त्रयात्मक कहनेका स्पष्ट अर्थ यह है कि पूर्वका विनाश और उत्तरका उत्पाद दो चीजें नहीं हैं, किन्तु एक कारणसे उत्पन्न होनेके कारण पूर्वविनाश ही उत्तरोत्पाद है । जो उत्पन्न होता है वही नष्ट होता है और वही ध्रुव है । यह सुनने में तो अटपटा लगता है कि 'जो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है वह ध्रुव कैसे हो सकता है ? यह तो प्रकट विरोध है; परंतु वस्तुस्थितिका थोड़ी स्थिरतासे विचार करने पर यह कुछ भी अटपटा नहीं लगता । इसके माने बिना तत्त्वके स्वरूपका निर्वाह हो नहीं हो सकता । भेदाभेदात्मक तत्व : गुण और गुणीमें, समान्य और सामान्यवान् में, अवयव और अवयवीमें, कारण और कार्य में सर्वथा भेद माननेसे गुणगुणीभाव आदि नहीं ही बन सकते। सर्वथा अभेद मानने पर भी यह गुण हैं और यह गुणी, यह व्यवहार नहीं हो सकता । गुण यदि गुणीसे सर्वथा भिन्न है, तो अमुक गुणका अमुक गुणीसे ही नियत सम्बन्ध कैसे किया जा सकता ? अवयवी यदि अवयवोंसे सर्वथा भिन्न है, तो एक अवयवी अपने अवयवोंमें सर्वात्मना रहता है, या एकदेशसे ? यदि पूर्णरूपसे; तो जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी मानना होंगे । यदि एकदेशसे; तो जितने अवयव है उतने प्रदेश उस अवयवी के स्वीकार करना होंगें। इस तरह सर्वथा भेद और अभेद पक्षमें अनेक दूषण आते है । अतः तत्त्वको पूर्वोक्त प्रकारसे कथञ्चित् भेदाभेदात्मक मानना चाहिये । जो द्रव्य है वही अभेद है और जो गुण और पर्याय है वही भेद है । दो पृथसिद्ध द्रव्यों में जिस प्रकार अभेद काल्पनिक है उसी तरह एक द्रव्यका अपने गुण और पर्यायोंसे भेद मानना भी सिर्फ समझने और समझानेके लिये है । गुण और पर्यायको छोड़कर द्रव्यका - कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, जो इनमें रहता हो ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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