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________________ ४९२ जैनदर्शन ही घट, पट आदि स्थूल पदार्थोंकी सृष्टि होती है । ये संयुक्त स्थूल पर्यायें भी अपने द्रव्य, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने असाधारण निज धर्मकी दृष्टिसे 'सत्' हैं और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी दृष्टिसे असत् हैं । इस तरह कोई भी पदार्थ इस सदसदात्मकताका अपवाद नहीं हो सकता । एकानेकात्मक तत्त्व : हम पहले लिख चुके हैं कि दो द्रव्य व्यवहारके लिये ही एक कहे जा सकते हैं । वस्तुतः दो पृथक् स्वतंत्रसिक्ष द्रव्य एकसत्ताक नहीं हो सकते । पुद्गल द्रव्यके अनेक अणु जब स्कन्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब उनका ऐसा रासायनिक मिश्रण होता है, जिससे ये अमुक काल तक एकसत्ताक जैसे हो जाते हैं । ऐसी दशामें हमें प्रत्येक द्रव्यका विचार करते समय द्रव्यदृष्टिसे उसे एक मानना होगा और गुण तथा पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेक एक हो मनुष्यजीव अपनी बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओंकी दृष्टिसे अनेक अनुभव में आता है । द्रव्य अपनी गुण और पर्यायोंसे, संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदिको अपेक्षा भिन्न होकर भी चूँकि द्रव्यसे पृथक् गुण और पर्यायोंकी सत्ता नहीं पाई जाती, या प्रयत्न करने पर भी हम द्रव्यसे गुणपर्यायोंका विवेचन-पृथक्करण नहीं कर सकते, अतः वे अभिन्न हैं । सत्सामान्यकी दृष्टि से समस्त द्रव्योंको एक कहा जा सकता है और अपनेअपने व्यक्तित्वकी दृष्टिसे पृथक् अर्थात् अनेक । इस तरह समग्र विश्व अनेक होकर भी व्यवहारार्थ संग्रहनयको दृष्टिसे एक कहा जाता है । एक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेकात्मक है । एक ही आत्मा हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, ज्ञान आदि अनेक रूपोंसे अनुभवमें आता हैं । द्रव्यका लक्षण अन्वयरूप है, जब कि पर्याय व्यतिरेकरूप होती है । द्रव्यकी संख्या एक है और पर्यायोंकी अनेक । द्रव्यका प्रयोजन अन्वयज्ञान है और पर्यायका प्रयोजन है व्यतिरेक ज्ञान । पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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