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________________ जैनदर्शन ४८२ स्याद्वादकी व्युत्पत्ति : 'स्याद्वाद' स्यात् और वाद इन दो पदोंसे बना है । वादका अर्थ है कथन या प्रतिपादन । 'स्यात्' विधिलिङ्में बना हुआ तिङन्तप्रतिरूपक निपात है । वह अपनेमें एक महान् उद्देश्य और वाचक शक्तिको छिपाये हुए है । स्यात्के विधिलिङ् में विधि, विचार आदि अनेक अर्थ होते है । उसमें 'अनेकान्त' अर्थ यहाँ विवक्षित है | हिन्दी में यह 'शायद' अर्थ में प्रचलित-सा हो गया है, परन्तु हमें उसकी उस निर्दोष परम्पराका अनुगमन करना चाहिये जिसके कारण यह शब्द 'सत्यलांछन ' अर्थात् सत्यका चिह्न या प्रतीक बना है । 'स्यात्' शब्द 'कथञ्चित्' के अर्थमें विशेषरूपसे उपयुक्त बैठता है । 'कथञ्चित्' अर्थात् 'अमुक निश्चित अपेक्षासे' वस्तु अमुक धर्मवाली है । न तो यह 'शायद', न 'संभावना' और न 'कदाचित्' का प्रतिपादक है, किन्तु 'सुनिश्चित दृष्टिकोण' का वाचक है । शब्दका स्वभाव है कि वह अवधारणात्मक होता है, इसलिये अन्यके प्रतिषेध करनेमें वह निरंकुश रहता है । इस अन्य प्रतिषेध पर अंकुश लगानेका कार्य ' स्यात् ' करता है । वह कहता है कि 'रूपवान् घट: ' वाक्य घड़े के रूपका प्रतिपादन भले हो करे, पर वह 'रूपवान् ही है' यह अवधारण करके घड़ेमें रहनेवाले रस, गन्ध आदिका प्रतिपेध नहीं कर सकता । वह अपने स्वार्थको मुख्य रूपसे कहे, यहाँ तक कोई हानि नहीं, पर यदि वह इससे आगे बढ़कर 'अपने ही स्वार्थ' को सब कुछ मानकर शेपका निषेध करता है, तो उसका ऐसा करना अन्याय है और वस्तुस्थितिका विपर्यास करना है । 'स्यात्' शब्द इसी अन्यायको रोकता है और न्याय्य वचनपद्धतिकी सूचना देता है । वह प्रत्येक वाक्यके साथ अन्तर्गर्भ रहता है और गुप्त रहकर भी प्रत्येक वाक्यको मुख्य-गौणभावसे अनेकान्त अर्थका प्रतिपादक बनाता है । 'स्यात् निपात है । निपात द्योतक भी होते है और वाचक भी । यद्यपि 'स्यात्' शब्द अनेकान्त - सामान्यका वाचक होता है फिर भी 'अस्ति' आदि विशेष धर्मोका प्रतिपादन करनेके लिए 'अस्ति' आदि तत्तत् धर्म
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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