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________________ सामान्यावलोकन नग्नताको साधुत्वका अनिवार्य अंग मानकर उसे व्यावहारिक रूप देते। यह सम्भव है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके साधु मृदुमार्गको स्वीकार कर आखिर में वस्त्र धारण करने लगे हों और आपवादिक वस्त्रको उत्सर्ग मार्गमें दाखिल करने लगे हों, जिसकी प्रतिध्वनि उत्तराध्ययन के केशीगौतम संवादमें आई है। यही कारण है कि ऐसे साधुओंकी 'पासत्य' शब्दसे विकत्थना की गई है। भगवान् महावीरने जब सर्वप्रथम सर्वसावद्य योगका त्यागकर समस्त परिग्रहको छोड़ दीक्षा ली तब उनने लेशमात्र भी परिग्रह अपने पास नहीं रखा था। वे परम दिगम्बर होकर ही अपनी साधानामें लीन हुए थे। यदि पार्श्वनाथके सिद्धान्तमें वस्त्रकी गुञ्जाइस होती ओर उसका अपरिग्रह महाव्रतसे मेल होता तो सर्वप्रथम दीक्षाके समय ही साधक अवस्थामें न तो वस्त्रत्यागको तुक थी और न आवश्यकता हो । महावीरके देवदूष्यकी कल्पना करके वस्त्रको अनिवार्यता और औचित्यकी संगति बैठाना आदर्शमार्गको नीचे ढकेलना है। पार्श्वनाथके चातुर्याममें अपरिग्रहकी पूर्णता तो स्वीकृत थी ही। इसी कारणसे सचेलत्व समर्थक श्रुतको दिगम्बर परम्पराने मान्यता नहीं दी ओर न उसकी वाचनाओंमें वे शामिल ही हुए । अस्तु, काल विभाग: हमें तो यहाँ यह देखना है कि दिगम्बर परम्पराके सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें और श्वेताम्बर परम्परासम्मत आगमोंमें जैनदर्शनके क्या बीज मौजूद हैं ? ____ मैं पहिले बता आया हूँ कि-उत्पादादित्रिलक्षण परिणामवाद, अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद भाषा तथा आत्मद्रव्यको स्वतन्त्र सत्ता इन चार महान् स्तम्भोंपर जैनदर्शनका भव्य प्रासाद खड़ा हुआ है। इन चारोंके समर्थक विवेचन ओर व्याख्या करनेवाले प्रचुर उल्लेख दोनों परम्पराके आगमोंमें पाये जाते हैं । हमें जैन दार्शनिक साहित्यका सामान्यावलोकन
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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