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________________ ४६८ जैनदर्शन निश्चयनय परनिरपेक्ष स्वभावका वर्णन करता है । जिन पर्यायोंमें 'पर' निमित्त पड़ जाता है उन्हें वह शुद्ध स्वकीय नहीं कहता । परजन्य पर्यायोंको 'पर' मानता है । जैसे-जीवके रागादि भावोंमें यद्यपि आत्मा स्वयं उपादान होता है, वही रागरूपसे परिणति करता है, परन्तु चूंकि ये भाव कर्मनिमित्तिक है, अतः इन्हें वह अपने आत्माके निजरूप नहीं मानता । अन्य आत्माओं और जगतके समस्त अजीवोंको तो वह अपना मान ही नहीं सकता, किन्तु जिन आत्मविकासके स्थानोंमें परका थोड़ा भी निमित्तत्व होता है उन्हें वह 'पर' के खातेमें ही खतया देता है। इसीलिये समयसारमें जब आत्माके वर्ण, रस, स्पर्श आदि प्रसिद्ध पररूपोंका निषेध किया है तो उसी झोकमे गुणस्थान आदि परनिमित्तक स्वधर्मोंका भी निषेध कर दिया गया है। दूसरे शब्दोंमें निश्चयनय अपने मूल लक्ष्य या आदर्शका खालिस वर्णन करना चाहता है, जिससे साधकको भ्रम न हो और वह भटक न जाय । इसलिये आत्माका नैश्चयिक वर्णन करते समय शुद्ध ज्ञायक रूप ही आत्माका स्वरूप प्रकाशित किया गया है। बन्ध और रागादिको भी उसी एक 'पर' कोटिमें डाल दिया है जिसमें पुद्गल आदि प्रकट परपदार्थ पड़े हुए हैं। व्यवहारनय परसाक्षेप पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला होता है। परद्रव्य तो स्वतन्त्र है, अतः उन्हें तो अपना कहनेका प्रश्न ही नहीं उठता। अध्यात्मशास्त्रका उद्देश्य है कि वह साधकको यह स्पष्ट बता दे कि तुम्हारा गन्तव्य स्थान क्या है ? तुम्हारा परम ध्येय और चरम लक्ष्य क्या हो सकता है ? बोचके पड़ाव तुम्हारे साध्य नहीं हैं । तुम्हें तो उनसे बहुत ऊँचे उठकर परम स्वावलम्बी बनना है। लक्ष्यका दो टूक वर्णन किये बिना मोही जीव भटक ही जाता है । साधकको उन स्वोपादानक, १. 'णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥ ५५ ॥-समयसार ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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