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________________ नय- विचार ४६३ प्रस्तुत करता है, और बताता है कि सिद्धि अनेकान्तसे ही हो सकती है । जब तक वस्तुको अनेकान्तात्मक नहीं मानोगे, तब तक एक ही वर्तमान पर्याय में विभिन्नलिंगक, विभिन्नसंख्याक शब्दोंका प्रयोग नहीं कर सकोगे, अन्यथा व्यभिचार दोष होगा । अतः उस एक पर्याय में भो शब्दभेदसे अर्थभेद मानना ही होगा । जो वैयाकरण ऐसा नहीं मानते उनका शब्द - भेद होने पर भी अर्थभेद न मानना शब्दनयाभास है । उनके मतमें उपसर्गभेद, अन्यपुरुषकी जगह मध्यमपुरुष आदि पुरुषभेद, भावि और वर्तमानक्रियाका एक कारकसे सम्बन्ध आदि समस्त व्याकरणको प्रक्रियाएँ निराधार एवं निर्विषयक हो जायँगी । इसीलिये जैनेन्द्रव्याकरणके रचयिता आचार्यवर्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरणका प्रारम्भ "सिद्धिरनेकान्तात् " सूत्रसे और आचार्य हेमचन्द्र ने हेमशब्दानुशासनका प्रारम्भ “सिद्धिः स्याद्वादात् ” सूत्रसे किया है । अतः अन्य वैयाकरणोंका प्रचलित क्रम शब्दनयाभास है । समभिरूढ और तदाभास : एककालवाचक, एकलिंगक तथा एकसंख्याक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं । समभिरूढनय उन प्रत्येक पर्यायवाची शब्दोंका भी अर्थभेद मानता है । इस नयके अभिप्रायसे एकलिंगवाले इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन तीन शब्दों में प्रवृत्तिनिमित्तको भिन्नता होनेसे भिन्नार्थवाचकता है । शक्र शब्द शासन क्रियाकी अपेक्षासे, इन्द्र शब्द इन्दन - ऐश्वर्यक्रियाकी अपेक्षासे और पुरन्दर शब्द पूर्दारण क्रियाकी अपेक्षासे, प्रवृत्त हुआ है । अतः तीनों शब्द विभिन्न अवस्थाओंके वाचक हैं । शब्दनय में एकलिंगवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थभेद नहीं था, पर समभिरूढनय प्रवृत्तिनिमित्तों की विभिन्नता होनेसे पर्यायवाची शब्दोंमें भी अर्थभेद मानता है । यह नय उन कोशकारोंको दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है, जिनने एक ही राजा या १. ‘अभिरूढस्तु पर्यायैः’ -लघी० हो० ४४ । अकलंङ्कग्रन्थत्रयटि० पृ० १४७
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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