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________________ ४५० जैनदर्शन होता है। जिसका नामकरण हो चुका है उस पदार्थका उसीके आकार वाली वस्तुमें या अतदाकार वस्तुमें स्थापना करना 'स्थापना' निक्षेप है। जैसे-हाथीकी मूर्तिमें हाथीको स्थापना या शतरंजके मुहरेको हाथो कहना। यह ज्ञानात्मक अर्थका आश्रय होता है। अतीत और अनागत पर्यायकी योग्यताकी दृष्टिसे पदार्थमें वह व्यवहार करना 'द्रव्य' निक्षेप है । जैसे-युवराजको राजा कहना या जिसने राजपद छोड़ दिया है उसे भी वर्तमानमें राजा कहना । वर्तमान पर्यायकी दृष्टिसे होनेवाला व्यवहार 'भाव' निक्षेप है जैसे-राज्य करनेवालेको राजा कहना । इसमें परमार्थ अर्थ-द्रव्य और भाव हैं। ज्ञानात्मक अर्थ स्थापना निक्षेप और शब्दात्मक अर्थ तामनिक्षेपमें गभित है। यदि बच्चा शेरके लिये रोता है तो उसे शेरका यदाकर खिलौना देकर ही व्यवहार निभाया जा सकता है। जगतके समस्त शाब्दिक व्यवहार शब्दसे ही चल रहे है। द्रव्य और भाव पदार्थकी त्रैकालिक पर्यायोंमें होनेवाले व्यवहारके आधार बनते है । 'गजराजको बुला लाओ' यह यह कहने पर इस नामक व्यक्ति हो बुलाया जाता है, न कि वनराज हाथी। राज्याभिषेकके समय युवराज ही 'राजा साहिब' कहे जाते है और राज-सभामें वर्तमान राजा ही 'राजा' कहा जाता है। इत्यादि समस्त व्यवहार कहीं शब्द, कहीं अर्थ और कही स्थापना अर्थात् ज्ञानसे चलते हुए देखे जाते है। ___ अप्रस्तुतका निराकरण करके प्रस्तुतका बोध कराना, संशयको दूर करना और तत्त्वार्थका अवधारण करना निक्षेन-प्रक्रियाका प्रयोजन है। प्राचीन शैलीमें प्रत्येक शब्दके प्रयोगके समय निक्षेप करके समझानेको प्रक्रिया देखी जाती है । जैसे-'घड़ा लाओ' इस वाक्यमें समझाएंगे कि १. "उक्तं हि-अवगयणिवारण पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणटुं तच्चत्थवधारण, च ॥ -धवला टी० सत्प।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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