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________________ ४३४ जैनदर्शन कार्यकारणभाव या उपादानोपादेयभावके लिये पूर्व और उत्तर क्षणमें कोई वास्तविक सम्बन्ध या अन्वय मानना ही होगा, अन्यथा सन्तानान्तर. वर्ती उत्तरक्षणके साथ भी उपादानोपादेयभाव बन जाना चाहिये। एक वस्तु जब क्रमशः दो क्षणोंको या दो देशोंको प्राप्त होती है तो उसमें कालकृत या देशकृत क्रम माना जा सकता है, किन्तु जो जहाँ और जब उत्पन्न हो, तथा वहीं और तभी नष्ट हो जाय; तो उसमें क्रम कैसा? क्रमके अभावमें योगपद्य की चर्चा ही व्यर्थ है । जगतके पदार्थोके विनाशको निर्हेतुक मानकर उसे स्वभावसिद्ध कहना उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार उत्तरका उत्पाद अपने कारणोंसे होता है उसी तरह पूर्वका विनाश भी उन्हीं कारणोंसे होता है। उनमें कारणभेद नहीं है, इसलिये वस्तुतः स्वरूपभेद भी नहीं है। पूर्वका विनाश और उत्तरका उत्पाद दोनों एक ही वस्तु हैं । कार्यका उत्पाद ही कारणका विनाश है । जो स्वभावभूत उत्पाद और विनाश है वे तो स्वरसत: होते ही रहते हैं। रह जाती है स्थल विनाशकी बात, सो वह स्पष्ट ही कारणोंकी अपेक्षा रखता है। जब वस्तुमें उत्पाद और विनाश दोनों ही समान कोटिके धर्म हैं तब उनमेसे एकको सहेतुक तथा दूसरेको अहेतुक कहना किसी भी तरह उचित नहीं है। संसारके समस्त ही जड़ और चेतन पदार्थोमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों प्रकारके सम्बन्ध बराबर अनुभवमें आते है। इनमें क्षेत्र, काल और भाव प्रत्यासत्तियां व्यवहारके निर्वाहके लिये भी हों पर उपादानोपादेयभावको स्थापित करनेके लिये द्रव्यप्रत्यासत्ति पवमार्थ ही मानना होगी। और यह एकद्रव्यतादात्म्यको छोड़कर अन्य नहीं हो सकती। इस एकद्रव्यतादात्म्यके बिना बन्ध-मोक्ष, लेन-देन, गुरु-शिष्यादिसमस्त व्यवहार समाप्त हो जाते है । 'प्रतोत्य समुत्पाद' स्वयं, जिसको प्रतीत्य जो समुत्पादको प्राप्त करता है उनमें परस्पर सम्बन्धको सिद्धि कर देता है । यहाँ केवल क्रिया मात्र ही नहीं है, किन्तु क्रियाका आधार का
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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