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________________ ४१४ जैनदर्शन प्रकाशके हम घटादि पदार्थोंको नहीं देख सकते और न दूसरोंको दिखा सकते है तो उसका यह अर्थ कदापि नही हो सकता कि घटादि पदार्थ 'प्रकाशरूप' ही है। पदार्थोको अपने कारणोंसे अपनी-अपनो स्वतन्त्र सत्ताएँ है और प्रकाशको अपने कारणोंसे । फिर भी जैसे दोनोंमें प्रकाश्यप्रकाशकभाव है उसी तरह प्रतिभास और पदार्थोमें प्रतिभास्य-प्रतिभासकभाव है। दोनोंकी एक सत्ता कदापि नहीं हो सकती। अतः परम काल्पनिक संग्रहनयको दृष्टिसे समस्त जगतके पदार्थोको एक 'सत्' भले ही कह दिया जाय, पर यह कहना उसी तरह एक काल्पनिक शब्दसंकेतमात्र है, जिस तरह दुनियाँके अनन्त आमोंको एक आम शब्दसे कहना। जगतका हर पदार्थ अपने व्यक्तित्वके लिए संघर्ष करता दिखाई दे रहा है और प्रकृतिका नियम अल्पकालके लिए उसके अस्तित्वको दूसरेसे सम्बद्ध करके भी उसे अन्तमे स्वतन्त्र ही रहनेका विधान करता है। जड़परमाणुओंमे इस सम्बन्धका सिलसिला परस्परसंयोगके कारण बनता और बिगड़ता रहता है, परन्तु चेतनतत्त्वोंमे इसकी भी संभावना नही है । सबकी अपनीअपनी अनुभूतियां, वासनाएँ और प्रकृतियां जुदी-जुदो है। उनमे समानता हो सकती है, एकता नहीं। इस तरह अनन्त भेदोंके भण्डारभूत इस विश्वमे एक अद्वैतकी बात सुन्दर कल्पनासे अधिक महत्त्व नही रखतो। __जैन दर्शनमे इस प्रकारको कल्पनाओंको संग्रहनयमें स्थान देकर भी एक शर्त लगा दी है कि कोई भी नय अपने प्रतिपक्षी नयसे निरपेक्ष होकर सत्य नहीं हो सकता। यानी भेदसे निरपेक्ष अभेद परमार्थसत्की पदवीपर नहीं पहुंच सकता। उसे यह कहना ही होगा कि 'इन स्वयं सिद्ध भेदोंमें इस दृष्टि से अभेद कहा जा सकता है।' जो नय प्रतिपक्षी नयके विषयका निराकरण करके एकान्तको ओर जाता है वह दुर्नय हैनयाभास है । अतः सन्मात्र अद्वैत संग्रहनयका विषय नहीं होता, किन्तु संग्रहनयाभासका विषय है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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