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________________ ४१२ जैनदर्शन 'एक ही ब्रह्मके सब अंश हैं, परस्परका भेद झूठा है, अतः सबको मिलकरके प्रेमपूर्वक रहना चाहिये' इस प्रकारके उदार उद्देश्यसे ब्रह्मवादके समर्थनका ढंग केवल औदार्यके प्रकारका कल्पित साधन हो सकता है। आजके भारतीय दार्शनिक यह कहते नहीं अघाते कि 'दर्शनकी चरम कल्पनाका विकास अद्वैतवादमे हो हो सकता है।' तो क्या दर्शन केवल कल्पनाकी दौड़ है ? यदि दर्शन मात्र कल्पनाकी सीमामें ही खेलना चाहता है, तो समझ लेना चाहिये कि विज्ञानके इस सुसम्बद्ध कार्यकारणभावके युगमें उसका कोई विशिष्ट स्थान नहीं रहने पायगा। ठोस वस्तुका आधार छोड़कर केवल दिमागी कसरतमें पड़े रहनेके कारण ही आज भारतीयदर्शन अनेक विरोधाभासोंका अजायबघर बना हुआ है। दर्शनका केवल यही काम था कि वह स्वयंसिद्ध पदार्थोका समुचित वर्गीकरण करके उनको व्याख्या करता, किन्तु उसने प्रयोजन और उपयोगकी दृष्टिसे पदार्थोका काल्पनिक निर्माण ही शुरू कर दिया है ! विभिन्न प्रत्ययोके आधारसे पदार्थोकी पृथक्-पृथक् सत्ता माननेका क्रम ही गलत है। एक ही पदार्थमें अवस्थाभेदसे विभिन्न प्रत्यय हो सकते है। 'एक जातिका होना' और 'एक होना' बिल्कुल जुदी बात है । 'सर्वत्र 'सत् सत्' ऐसा प्रत्यय होनेके कारण सन्मात्र एक तत्त्व है।' यह व्यवस्था देना न केवल निरी कल्पना ही है, किन्तु प्रत्यक्षादिसे बाधित भी है । दो पदार्थ विभिन्नसत्ताक होते हुए भी सादृश्यके कारण समानप्रत्ययके विषय हो सकते है । पदार्थोका वर्गीकरण सायके कारण ‘एक जातिक' के रूपमे यदि होता है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि वे सब पदार्थ “एक ही' है। अनन्त जड़ परमाणुओंको सामान्यलक्षणसे एक पुद्गलद्रव्य या अजीवद्रव्य जो कहा जाता है वह जातिको अपेक्षा है, व्यक्तियाँ तो अपना पृथक्-पृथक् सत्ता रखने वाली जुदी-जुदी ही है। इसी तरह अनन्त जड़ और अनन्त चेतन
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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