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________________ ४१० जैनदर्शन विरुद्ध सदाचार, दुराचार आदि क्रियाओंसे होनेवाला पुण्य-पापका बन्ध और उनके फल सुख-दुःख आदि नहीं बन सकेंगे । जिस प्रकार एक शरीरमें सिर से पैर तक सुख और दुःखकी अनुभूति अखण्ड होती है, भले ही फोड़ा पैर में ही हुआ हो, या पेड़ा मुखमें ही खाया गया हो, उसी तरह समस्त प्राणियों में यदि मूलभूत एक ब्रह्मका ही सद्भाव है तो अखण्डभावसे सबको एक जैसी सुख-दुःखको अनुभूति होनी चाहिये थी । एक अनिर्वचनीय अविद्या या मायाका सहारा लेकर इन जलते हुए प्रश्नोंको नहीं सुलझाया जा सकता । ब्रह्मको जगतका उपादान कहना इसलिए असंगत है, कि एक ही उपादानसे विभिन्न सहकारियोंके मिलने पर भी जड़ और चेतन, मूर्त्त और और अमूर्त जैसे अत्यन्त विरोधी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते। एक उपादानजन्य कार्योंमें एकरूपताका अन्वय अवश्य देखा जाता है । 'ब्रह्म क्रीड़ाके लिए जगतको उत्पन्न करता है' यह कहना एक प्रकारकी खिलवाड़ है । जब ब्रह्मसे भिन्न कोई दया करने योग्य प्राणी ही नहीं हैं; तब वह किस पर दया करके भी जगतको उत्पन्न करनेकी बात सोचता है ? और जब ब्रह्म से भिन्न अविद्या वास्तविक है ही नहीं; तब आत्मश्रवण, मनन और निदिध्यासन आदिके द्वारा किसकी निवृत्ति की जाती है ? अविद्याको तत्त्वज्ञानका प्रागभाव नहीं माना जा सकता; क्योंकि यदि वह सर्वथा अभावरूप है, तो भेदज्ञानरूपी कार्य उत्पन्न नहीं कर सकेगी ? एक विष स्वयं सत् होकर, पूर्व विषको, जो कि स्वयं सत् होकर ही मूर्च्छादि कार्य कर रहा था, शान्त कर सकता हैं और उसे शान्त कर स्वयं भी शान्त हो सकता है । इसमें दो सत् पदार्थोंमें ही बाध्यबाधकभाव सिद्ध होता है । ज्ञानमें विद्यात्व या अविद्यात्वको व्यवस्था भेद या अभेदको ग्रहण करनेके कारण नहीं है । यह व्यवस्था तो संवाद और विसंवादसे होती है और संवाद अभेदकी तरह भेदमें भी निर्विवाद रूपसे देखा जाता है । अविद्याको भिन्नाभिन्नादि विचारोंसे दूर रखना भी उचित नहीं है;
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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