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________________ ४०४ जैनदर्शन जैमिनीय अपने द्वारा स्वीकृत दो, तीन, चार, पाँच और छह प्रमाणोंसे व्याप्तिका ज्ञान नहीं कर सकते। उन्हें व्याप्तिग्राही तर्कको स्वतन्त्र प्रमाण मानना ही चाहिये । इस तरह तर्कको अतिरिक्त प्रमाण मानने पर उनकी निश्चित प्रमाण-संख्या बिगड़ जाती है। नैयायिकके उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें, प्रभाकरको अर्थापत्तिका अनुमानमें और जैमिनीयके अभाव प्रमाणका यथासम्भव प्रत्यक्षादि प्रमाणोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। अतः यावत् विशदज्ञानोंका, जिनमें एकदेशविशद इन्द्रिय और मानस प्रत्यक्ष भी शामिल है, प्रत्यक्षप्रमाणमें, तथा समस्त अविशदज्ञानोंका, जिनमें स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम है, परोक्षप्रमाणमें अन्तर्भाव करके प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद स्वीकार करना चाहिये। इनके अवान्तर भेद भी प्रतिभासभेद और आवश्यकताके आधारसे ही किये जाने चाहिये । विषयाभास: __एक ही सामान्यविशेषात्मक पदार्थ प्रमाणका विषय है, यह पहले बताया जा चुका है। यदि केवल सामान्य, केवल विशेष या सामान्य और विशेष दोनोंको स्वतन्त्र-स्वतन्त्ररूपमें प्रमाणका विषय माना जाता है, तो ये सब विषयाभास है; क्योंकि पदार्थकी स्थिति सामान्यविशेषात्मक और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकरूपमें ही उपलब्ध होती है ! पूर्वपर्यायका त्याग, उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति और द्रव्यरूपसे स्थिति इस यात्मकताके बिना पदार्थ कोई भी अर्थक्रिया नहीं कर सकता। 'लोकव्यवस्था' आदि प्रकरणोंमें हम इसका विस्तारसे वर्णन कर आये है। यदि सर्वथा नित्य सामान्य आदिरूप पदार्थ अर्थक्रियाकारी हों, तो समर्थके लिए कारणान्तरोंकी अपेक्षा न होनेसे समस्त कार्योंकी उत्पत्ति एकसाथ हो जानी चाहिये । १. 'विषयाभासः सामान्य विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम्' । -परीक्षामुख ६६१-६५ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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