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________________ ४०० जैनदर्शन कार्य पक्षदोषसे ही किया जा सकता है।' आचार्य विद्यानन्दने भी सामान्यरूपसे एक हेत्वाभास कहकर असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिकको उसीका रूपान्तर माना है । उनने भी अकिञ्चित्कर हेत्वाभासके ऊपर भार नहीं दिया है । वादिदेवसूरि आदि आचार्य भी हेत्वाभास के असिद्ध आदि तीन भेद ही मानते हैं । दृष्टान्ताभास : व्याप्तिको सम्प्रतिपत्तिका स्थान दृष्टान्त कहलाता है । दृष्टान्तमें साध्य और साधनका निर्णय होना आवश्यक है । जो दृष्टान्त इस दृष्टान्तके लक्षणसे रहित हो, किन्तु दृष्टान्त के स्थान में उपस्थित किया गया हो, वह दृष्टान्ताभास है । दिङ्नागके न्यायप्रवेश ( पृ० ५ - ६ ) में दृष्टान्ताभासके साधनधर्मासिद्ध, साध्यधर्मासिद्ध; उभयधर्मासिद्ध, अनन्वय, विपरीतान्वय ये पाँच साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा साध्याव्यावृत्त, साधनाव्यावृत्त, उभयाव्यावृत्त, अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक ये पाँच वैधर्म्य दृष्टान्ताभास इस तरह दस दृष्टान्ताभास बताये है । इनमें उभयासिद्ध नामक दृष्टान्ताभासके अवान्तर दो भेद और भी दिखाये गये हैं । अतः दिङ्नागके मतसे बारह दृष्टान्ताभास फलित होते है ।' 'वैशेषिकको भी बारह निदर्शनाभास ही इष्ट है । 'आचार्य धर्मकीर्तिने दिङ्नागके मूल दस भेदोंमें सन्दिग्धसाध्यान्वय, सन्दिग्धसाधनान्वय, सन्दिग्धउभयान्वय और अप्रदर्शितान्वय ये चार साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेक, सन्दिग्धसाधनव्यतिरेक, सन्दिग्धोभव्यतिरेक और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन चार वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोंको मिलाकर कुल अठारह दृष्टान्ताभास बतलाये हैं । न्यायावतार ( इलो० २४-२५ ) में आ० सिद्धसेनने 'साध्यादिविकल तथा संशय' शब्द देकर लगभग धमकीर्तिसम्मत विस्तारकी ओर ही संकेत किया है । आचार्य माणिक्यनन्दि ( परीक्षामुख ४।४०-४५ ) असिद्धसाध्य, १. प्रश० भा० पृ० २४७ । २. न्यायबि० ३ । १२५-१३६।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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