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________________ ३९४ जैनदर्शन जैसा है' इस प्रकारका ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास है। जैसे-सहजात देवदत्त और जिनदत्तमें भ्रमवश होनेवाला विपरीत प्रत्यभिज्ञान, या द्रव्यदृष्टिसे एक ही पदार्थमें बौद्धको होने वाला सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और पर्यायदृष्टिसे सदृश पदार्थमें नैयायिकादिको होनेवाला एकत्वज्ञान । ये सब प्रत्यभिज्ञानाभास है। तकाभास: जिनमें अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है, उनमें व्याप्तिज्ञान करना तर्काभास है। जैसे-जितने मैत्रके पुत्र होंगे वे सब श्याम होंगे आदि । यहाँ मैत्रतनयत्व और श्यामत्वमें न तो सहभावनियम है और न क्रमभावनियम; क्योंकि श्यामताका कारण उस प्रकारके नामकर्मका उदय और गर्भावस्थामें माताके द्वारा शाक आदिका प्रचुर परिमाणमें खाया जाना है। अनुमानाभास : पक्षाभास आदिसे उत्पन्न होनेवाले अनुमान अनुमानाभास हैं। अनिष्ट, सिद्ध और वाधित पक्ष पक्षाभास है । मीमांसकका 'शब्द अनित्य है' यह कहना अनिष्ट पक्षाभास है। कभी-कभी भ्रमवश या घबड़ाकर अनिष्ट भी पक्ष कर लिया जाता है। शब्द श्रवण इन्द्रियका विषय है। यह सिद्ध पक्षाभास है । शब्दके कानसे सुनाई देनेमें किसीको भी विवाद नहीं है, अतः उसे पक्ष बनाना निरर्थक है। प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, लोक और स्ववचनसे बाधित साध्यवाला पक्ष बाधित पक्षाभास है। जैसे-'अग्नि ठंडी है; क्योंकि वह द्रव्य है, जलकी तरह ।' यहाँ अग्निका ठंडा होना प्रत्यक्षसे बाधित है। 'शब्द अपरिणामी है; क्योंकि वह कृतक है, घटकी तरह ।' यहाँ 'शब्द अपरिणामी है' यह पक्ष 'शब्द परिणामी है; क्योंकि वह अर्थक्रियाकारी है और कृतक है घटकी अपरिणामी है' यह पा १. परीक्षामुख ६।१०। २. परीक्षामुख ६।११-२०॥
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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