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________________ ३९२ जैनदर्शन कोटिका निश्चय होता है और अनध्यवसाय ज्ञानमें किसी भी एक कोटिका निश्चय नहीं हो पाता, इसलिये ये विसंवादी होनेके कारण प्रमाणाभास है। सन्निका दि प्रमाणाभास : चक्षु और रसका संयुक्तममवायसम्बन्ध होने पर भी चक्षुसे रसज्ञान नहीं होता और रूपके साथ चक्षुका सन्निकर्प न होने पर भी रूपज्ञान होता है । अतः सन्निकर्पको प्रमाके प्रति साधकतम नहीं कहा जा सकता। फिर सन्निकर्प अचेतन है, इमलिए भी चेतन प्रमाका वह साधकतम नहीं बन सकता। अत: सन्निकर्ष, कारकसाकल्य आदि प्रमाणाभास है। कारकसाकल्यमें चेतन और अचेतन सभी प्रकारकी सामग्रीका समावेश किया जाता है। ये प्रमितिक्रियाके प्रति ज्ञानसे व्यवहित होकर यानी ज्ञानके द्वारा ही किसी तरह अपनी कारणता कायम रख सकते है, साक्षात् नहीं; अतः ये सब प्रमाणाभास है । सन्निकर्ष आदि चूंकि अज्ञान रूप है; अतः वे मुख्यरूपसे प्रमाण नहीं हो सकते। रह जाती है उपचारसे प्रमाण कहनेकी बात, सो साधकतमत्वके विचारमे उसका कोई मूल्य नहीं है। ज्ञान होकर भी जो संव्यवहारोपयोगी नहीं है या अकिञ्चित्कर है वे सब प्रमाणाभासकोटिमें शामिल है । प्रत्यक्षाभास: अविशद ज्ञानको प्रत्यक्ष कहना प्रत्यक्षाभास है, जैसे कि प्रज्ञाकर गुप्त अकस्मात् धुआँको देखकर होनेवाले वह्निविज्ञानको प्रत्यक्ष कहते है । भले ही यहाँ पहलेसे व्याप्ति गृहीत न हो और तात्कालिक प्रतिभा आदि से वह्निका प्रतिभास हो गया हो, किन्तु वह प्रतिभास धूमदर्शनकी तरह १. परीक्षामुख ६।५। २. परीक्षामुख ६।६।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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